अभी हाल ही में मेरा एक मित्र मिल गया। उनसे काफी अरसे से भेंट नहीं हो पाई थी। जब उनका हालचाल पूछा तो बेरोजगारी का दर्द उनके चेहरे पर आ गया और उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी की चाहत, ऐसे बताया कि मेरा भी दिल पसीज गया, क्योंकि मैं भी बेरोजगारी की मार झेल रहा हूं। ये अलग बात है कि लिख्खास बनकर बेरोजगारी का दर्द जरूर मेरा कम हो गया है, लेकिन मेरे मित्र के हालात कुछ और ही थे।
खुद के बारे में बताने के बाद और बताया कि उन्होंने रोजी-रोटी के लिए एक छोटा व्यवसाय शुरू किया है, किन्तु वह भी उधारी की मार से दो-चार हो रहा है और गरीबी से वह खुद। जब परिवार की बारी आई तो बताया कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई हो रही है। मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा कि बच्चे गांव में ही पढ़ते हैं, तो उनका जवाब था, नहीं। बच्चे तो 20 किमी दूर इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने प्रतिप्रश्न करते हुए पूछा कि क्यों भाई, गांव में सरकारी स्कूल नहीं है ? उसने बताया, स्कूल तो है, मगर...। उनके मगर का अर्थ मुझे समझ में आ गया।
मैंने गांवों में स्वास्थ्य के हालात देखे हैं, तो सोचा कि पूछ तो लूं, वहां स्वास्थ्य व्यवस्था का क्या हाल है ? मेरे मित्र ने बड़े ही गर्व से बताया कि गांव में कहां की स्वास्थ्य व्यवस्था, निजी क्लीनिकों जैसी सुविधा, सरकारी अस्पतालों में कहां होती है, हम थोड़े ही एैरे-गैरे अस्पतालों में इलाज कराने जाएंगे।
अब तो मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। सोचा, जब नौकरी नहीं है तो आमदनी क्या होगी, यह बात मैंने पूछ ही डाली। मेरे मित्र ने बताया कि चाहिए तो सरकारी नौकरी, उसकी अपने मजे हैं। सोचा, अभी कुछ नहीं है तो छोटा व्यवसाय करके ही आमदनी जुटाई जाए। बचत के बारे में पूछा तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया, हां, प्राइवेट बैंक में खाते हैं ना। उसमें ठीक-ठाक बैंक-बैलेंस है, उससे भी व्याज के तौर पर मुनाफा हो जाता है। यहां भी मुझसे रहा नहीं गया कि आपके शहर में सरकारी बैंक नहीं है, तो वे बोले, हैं ना, मगर...। यहां भी मैं, उनके मगर का अर्थ समझ गया।
बाद में जब मैंने उनसे यह कहा कि जब आप हर कहीं निजी स्कूल, अस्पताल तथा बैंक और न जाने क्या-क्या... में सुविधा लेते हैं और सरकारी सुविधाओं को कोसते हैं ? बावजूद, आप सरकारी नौकरी के पीछे क्यों पड़े हैं ? मेरे इस सवाल के बाद उसने मुझे जो जवाब दिया, उससे तो मेरे कान ही खड़े रह गए। मित्र बोले, सरकारी नौकरी में फायदे ही फायदे हैं। जितना मन किया काम करो, कभी दफ्तर भी नहीं गए तो कोई पूछने वाला नहीं। 5 तारीख हुए नहीं कि वेतन बैंक खाते में आ जाते हैं।
उन्होंने ऐसे अनगिनत लाभ गिनाए, जिसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और अब मुझे भी लगा कि सरकारी नौकरी के फायदे आजमाने के लिए कुछ भी कर गुजरूंगा। मैं भी सोचने लगा कि इतना पढ़ने के बाद, केवल कलम घींसने से कुछ फायदे होने वाले नहीं है। यहां कोल्हू के बैल की तरह रगड़ाओ और फायदा, उसके विपरित चवन्नी भी नहीं। इससे तो अच्छा है, सरकारी नौकरी, जहां आम के आम और गुठलियों के दाम मिलते हैं, मतलब, जब काम किए तब भी वेतन, नहीं किए तब भी वेतन। कौन कितना काम रहा है, कोई देखने वाला नहीं रहता। जो मन में आए, वो करो। कभी कोई एकाध नोटिस मिल जाए, उसे डाल दो, रद्दी की टोकरी में और हो जाओ, दफ्तर से नौ-दो ग्यारह। भला, कौन है, जो सरकारी नौकरी और सरकारी नौकर का कुछ भी बिगाड़ सकता है। मेरे मित्र ने भी दोहराया कि चाहे जो भी हो जाए, लेकिन चाहिए तो बस, सरकारी नौकरी ?
राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।
जांजगीर, छत्तीसगढ़
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