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कविता

गिराया था फलक से कि
नीचे कोई है 
उठा लेगा उसे 
मिले जो ज़ख्म थे 
भरेंगे आप ही 
छूने से उसके .....
एक हवा आई तो थी 
नरमी का आभास दे 
गुज़र गयी छूके 
बदन  को जैसे 
मानो हाथ रख 
कोई  दिया हो ......
द्वन्द उठ रहे थे मन में 
क्या हो रहा यूँ 
नशे में डूब रहा 
पूरा तन 
ये किसके शबाब 
कि शराब है 
क्यूँ विचलित हो
 रहा मन .....
थी कोई व्यथा या 
कोई अंतर्वेदना 
कुछ उलझी सी 
किसकी है संवेदना 
ये सोच रहा मन 
बस इतना ही , कि
बढ गया दर्द 
अचानक ,
लग रहा था संपूर्ण 
अस्तित्व कोई ले 
गया हो , और  
दे गया 
कुछ अनबुझ पहेली सी .....
थी आने  की 
आहट या 
फिर  भ्रम  था ,
सतत टूटने का 
लगता 
फिर एक क्रम था .....
ज़ख्मों को हवा 
दे गया कोई 
न रूप था ना
कोई रंग ,
अपने आने की बस 
सदा  दे गया कोई .....
क्या यही है अंत ?
या फिर 
आदि है अभी 
कितने ज़ख्मों से 
रूबरू होना है अभी
वक़्त 
के साए में,
उलझी हुई कोई 
तस्वीर 
देखनी है अभी 
या ,दुखों से 
अब 
मौन रहके ख़ुशी 
आनी  है अभी ............
होगा कोई जो ! 
उठाएगा ,
और पूछेगा
दिल के हाल भी 
फिर से ,
फलक पर शेष 
फतह कराएगा अभी ........
लेखक  :  अतेन्द्र कुमार सिंह "रवि " 
 
  

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Comment by Abhinav Arun on December 24, 2011 at 3:03pm
बिल्कुल अबूझ पहेली सी इस रचना की गढ़न के लिए हार्दिक साधुवाद अतेन्द्र जी !! आपने संवेदनाओं को बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है !
Comment by Atendra Kumar Singh "Ravi" on November 27, 2011 at 8:29am

hamaari kavita aapko pasand aaee....iske liye aapko ganesh sir bahut bahut dhanyavaad.....


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 26, 2011 at 6:04pm
अचानक ,
लग रहा था संपूर्ण 
अस्तित्व कोई ले 
गया हो , और  
दे गया 
कुछ अनबुझ पहेली सी .....
बहुत खूब बिलकुल अनबुझ पहेली सी, कई बार पढ़ गया और बुझने का प्रयास करता रहा, विचारो का तारतम्य रचना को एक अलग सा आभास देता है, बधाई स्वीकार करे अतेन्द्र जी |

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