धीरज दूध की डेयरी पर खड़ा दोस्तों के साथ गप्प मार रहा था. किसी भी लड़की को बात ही बात में चरित्रहीन कर देना उसकी बुरी आदत थी. अभी किसी बात पर बहस हो ही रही थी कि सामने से एक लड़की आती हुई दिखी. धीरज अपनी आदतानुसार शुरू हो गया, " पता है कल्लू वो जो सामने से लड़की आ रही है न. उससे मेरी दोस्ती करीब एक साल तक रही. हम दोनों ने साथ-२ खूब मस्ती की." "पर धीरज वो लड़की तो देखने में बहुत शरीफ लग रही है फिर तेरे जैसे इंसान से उसने दोस्ती कैसे कर ली?" कल्लू ने हैरान हो पूछा. धीरज खिसियाते हुए बोला, "अबे साले वो देखने में ही सीधी लगती है लेकिन है बिलकुल चरित्रहीन. जाने कितनों से उसका याराना है." तभी बगल में खड़े एक नौजवान ने धीरज का कॉलर पकड़ लिया, "वो लड़की ऐसी नहीं है. मैं उसे बचपन से जानता हूँ." धीरज घबराते हुए अकड़ा, "अबे कौन है तू और उस लड़की को कैसे जानता है.'' धीरज बेहोश होने से पहले केवल इतना सुन पाया, "मैं उस लड़की का सगा भाई हूँ."
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मोहल्ले के नुक्कड़ पर खड़े मनबढुओं की नौटंकी को बड़े करीने से अभिव्यक्त किया है आपने, लघु कथा इम्पैक्ट छोड़ने में कामयाब है, बधाई स्वीकार करें सुमित प्रताप जी |
लघु-कथा के विन्दु कैशोर्य वर्ग में व्याप गये छिछलेपन को इंगित करते हैं. सुमितजी के साहित्यिक विचारों के संवर्धन हेतु प्रस्तुत मंच समीचीन वातावरण दे. इसी आशा के साथ उनका इस मंच पर स्वागत है. इस ’लघु-कथा’ में वैसे अभी भी गुंजाइश है. किन्तु, यह अदम्य विश्वास भी जगाती है.
बधाई.
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