आज भी मैं वही फूल हूँ ,
जो कल था खिला हुआ ,
था आँखों का तारा ,
था हर एक से घिरा हुआ ,
हर कोई चाहे लेना ,
मुझे हाथों हाथों में ,
मैं खुश यूँ ही होता रहा ,
उनकी प्यारी बातों में ,
कोई चाहे रहूँ मैं ,
देवों का होकर ,
कोई चाहे प्रियतम का हार बनूँ ,
पता नहीं कब फिसल गया ,
सब की नज़र से उतर गया ,
अब वो चमक नहीं रही ,
धुल धूसरित मैं पड़ा रहा ,
अपने विमुख हुए हमसे ,
मैं राहों में खड़ा रहा ,
Comment
dhanyavad svinash ji , saurabh bhaiya ewam satish ji
बधाई इस रचना और संवेदना पर, रविजी.
आप रचनाकर्म के साथ-साथ अध्ययन और परिमार्जन पर भी अवश्य ध्यान दें.
NICE...Ravi kumar ji.
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