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तुम्हे शिकायत है

इस गहरे अँधेरे से ,

पर क्या तुमने कोशिश की

एक दिया जलाने की ?

या मेरे हाथों से हाथ मिलाकर

बनाया कोई सुरक्षा घेरा

कुछ जलते दीयों को

हवा से बचाने के लिए ?

 

नही न ?

 

कोई बात नहीं !

अभी सूखा नही है

समय का फूल !

 

चलो ढूँढे !

समंदर में डूबे सूरज को ,

इकठ्ठा करें

एक मुट्ठी धूप ,

उछाल दें पर्वतों पर ,

घाटियों में भी !

खिला दें

मुरझाते फूलों को !

 

कुछ तो पिघले ,

गुलाब की पंखुड़ियों पर जमी

ओस की बूंदें !

और पहुंचे

नर्म नंगी दूब तक !

 

वो दर्द

जो ठंडी हवाओं ने बढ़ा दिया है

कुछ तो कम हो !

 

 

 

 

..................................... अरुन श्री !

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Comment

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Comment by Dr. Umeshwar Shrivastava on December 19, 2011 at 11:27pm

प्रेरणादायक कविता है, खासकर उन लोगों के लिए जो केवल समस्याओं पर विचार करते हैं, समाधान ढूँढ़ने प्रयास नहीं करते। व्यवस्था के प्रति केवल शिकायत करना ठीक नहीं है, अच्छा होगा यदि दोनों हाथ लेकर सुधार कार्य हेतु आगे आएँ, कदम-से-कदम मिलाएँ। सुंदर रचना !


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 19, 2011 at 8:16pm

सुन्दर अभिव्यक्ति, साधुवाद स्वीकार करें.

Comment by Arun Sri on December 19, 2011 at 2:22pm

धन्यवाद प्रताप सर !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on December 18, 2011 at 3:49pm

अति श्रेष्ठ ...बहुत ही सुन्दर और लाजवाब कविता|

Comment by Arun Sri on December 18, 2011 at 1:44pm

आपने मेरी कविता पर दृष्टी डाली ! बहुत बहुत धन्यवाद AK Rajput जी !

Comment by AK Rajput on December 16, 2011 at 4:00pm

कोई बात नहीं !


अभी सूखा नही है


समय का फूल !


शानदार अभिव्यक्ति

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