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प्यास बुझती नहीं ..

प्यास बुझती नहीं ..

देश था परतंत्र

गुजरे ज़माने की बात है

मुद्दतों बाद तुमसे मुलाकात है.

गुलामी की ज़ंजीर डली थी पाँव मे.

तपती धूप

दोपहरी जेठ की

कौन बैठता था छाओं में.

पर प्यास तो थी

जीभ पर नहीं

ज़हन में .

युवाओं के सिर पर

ज़नून था आज़ादी का

फौलादी नसों  में

इन्कलाब था.

खून नहीं

लोहा दौड़ता था नसों में

और

अंग्रेजों की मौत का

सैलाब था .

ज़नून था

खुद मर मिटने का.

बया के घोंसलों सी

लटकती थी लाशें

यहाँ वहां

भारत माँ के सपूतों की.

ये प्यास थी इन्कलाब की

जिसके दम से

आज मैं और तुम

सांस ले रहे हैं

खुले आसमान के नींचे.

पर

आज मेरे देश में क्या नहीं है  ?

हरयाली है

खुशहाली है

पर बहुत से पेट

आज भी खाली हैं !

क्यों ?

एक प्यास आज भी है ..

जो बुझती नहीं

एक हवस है

जो रूकती नहीं

खाली पेटों में नहीं ..

भरे पेटों में  ! !
गिद्ध

नोंच रहे हैं

और

हम
सोच रहे हैं .

सर झुकाए खड़े हैं
मुर्दा से गड़े हैं

डाल रहे हैं

वोट

दे रहे है
सपोर्ट

बढ़ा रहे हैं

उनकी प्यास

जो बुझती नहीं ...

रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा

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Comment

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Comment by Dr Ajay Kumar Sharma on January 7, 2012 at 10:35am

धन्यवाद अरुण कुमार पाण्डेय " अभिनव " जी . गणेश जी " बागी " जी ..ये आज हर जनमानस के मन की व्यथा है जो मेरी कविता में फूट पड़ी है..कविता की आत्मा तक पहुंचने का आभार.... 

Comment by Abhinav Arun on January 7, 2012 at 8:54am

आज की पीढ़ी को सन्देश देती और आइना दिखाती रचना के लिए हार्दिक साधुवाद डॉ अजय जी हार्दिक बधाई इस  रचना केलिए |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 6, 2012 at 9:22pm

बया के घोंसलों सी

लटकती थी लाशें

यहाँ वहां

भारत माँ के सपूतों की.

ये प्यास थी इन्कलाब की

आह , मन व्यथित हो जाता है, उन्होंने सपनों में भी नहीं सोचा होगा, कि आजाद भारत कि दुर्दशा माँ भारती के सपूत ही करेंगे , बहुत ही मार्मिक रचना, बधाई स्वीकार करे डॉ साहब इस बुलंद अभिव्यक्ति पर |

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