फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप !
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप !!
फगुनाई ऐसी चढ़ी, टेसू धारें आग
दोहे तक तउआ रहे, छेड़ें मन में फाग ॥
भइ, फागुन में उम्र भी करती जोरमजोर
फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर !!
जबसे सींचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह !!
बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर
मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर ॥
धूप खिली छत खेलती, अल्हड़ खोले केश ।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष ॥
करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव
होश रहे तो नागरी, जोशीले को ताव .. !
हम तो भाई देस के, जिसके माने गाँव ।
गलियाँ घर-घर जी रहीं - फगुआ, कुश्ती-दाँव ॥
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सौरभ
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फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप !
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप !!
वाह इस रहस्यभेदन का कायल हुआ मैं आदरणीय श्री सौरभ जी
फगुनाई ऐसी चढ़ी, टेसू धारें आग
दोहे तक तउआ रहे, छेड़ें मन में फाग ॥
दोहों का तऊआना क्या बात है :-)
भइ, फागुन में उम्र भी करती जोरमजोर
फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर !!
सही कहा देह विदेह और जोरी बरजोरी का खेल अजब गज़ब ढा रहा फागुन में
जबसे सींचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह !!
देह के चैताने कजवाब नहीं
बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर
मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर ॥
अबीर की गुदगुद कमाल है
करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव
होश रहे तो नागरी, जोशीले को ताव .. !
होश राहे तो नगरी क्या चित्र खींचा है वाह
हम तो भाई देस के, जिसके माने गाँव ।
गलियाँ घर-घर जी रहीं - फगुआ, कुश्ती-दाँव ॥
बिलकुल गाँव और गाँव की होली आज भी दिल के कोने में हिलोरे मारती पिचकारी सी ...शानदार रंगीले दोहे हार्दिक बधाई !!
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