हुईं थीं मुद्दतें फिर, वक़्त कुछ ख़ाली सा गुज़रा है;
कोई बीता हुआ मंज़र, ज़हन में आके ठहरा है;
कहीं जाऊं, मैं कुछ सोचूँ, न जाने क्या हुआ है,
मेरी आज़ाद यादों पर किस तसव्वुर का पहरा है;
वो आये तो ख़िज़ां में भी एक ख़ुशगवारी थी,
नहीं हैं वो तो मुझको इन बहारों में भी सेहरा है;
मुहब्बत की गहराई में डूबा इस क़दर यारों,
कोई दरिया-समंदर हो, लगता कम ही गहरा है;
हुई मय से जो तौबा यार वाइज़ बन गया था,
जो देखा जा के तो जाना वो, न सुधरा था न सुधरा है;
कभी ख़्वाबों में धुंधली सी कोई तस्वीर बनती है,
हुए उनसे मुख़ातिब जाना, यही हसीन चेहरा है;
थी जो गफ़लत मुझे के ये हक़ीक़त है हसीं कितनी;
खुली जो आँख पाया कोई, ख़्वाब सुनहरा है;
चले करने बयां अलफ़ाज़ में उन लम्हात को 'वाहिद',
समझ आया उन्हें ये शख़्स, अंधा-गूंगा-बहरा है;
Comment
आपका हार्दिक आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी| सादर,
कहीं जाऊं, मैं कुछ सोचूँ, न जाने क्या हुआ है,
मेरी आज़ाद यादों पर किस तसव्वुर का पहरा है;....bahut achchi ghazal...vaah
आभार मनोज भाई आपका..
हुई मय से जो तौबा यार वाइज़ बन गया था,
जो देखा जा के तो जाना वो, न सुधरा था न सुधरा है;....कुछ लोग कभी नहीं सुधारते वाहिद भाई....पूरी की पूरी गजल ही खूबसूरत है ..आगे क्या कहूँ ...शुक्रिया
आदरणीय ब्रजभूषण जी,
प्रशंसा के लिए शुक्रगुज़ार हूँ आपका|
स्नेही मनोज भाई,
हृदयतल से आभार|
चले करने बयां अलफ़ाज़ में उन लम्हात को 'वाहिद',
समझ आया उन्हें ये शख़्स, अंधा-गूंगा-बहरा है;
क्या बात है ! बहुत खूब |
बहुत खूब वाहिद भाई...बहुत ही दिलकश नज्म है|कोटिशः बधाइयाँ
आदरणीय हबीब जी,
प्रशंसा के लिए तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ|
खुबसूरत ग़ज़ल वाहिद जी... हर शेर उम्दा...
सादर बधाई कुबूल फरमाएं....
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