बह्रे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
2122/ 2122/ 212
जाँ तेरी ऐसे बचा ली जाएगी;
हर तमन्ना मार डाली जाएगी; ।।1।।
बंदरों के हाथ में है उस्तरा,
अब विरासत यूँ सँभाली जाएगी;।।2।।
इक नज़ूमी कह रहा है शर्तियः,
दिन मनव्वर रात काली जाएगी;।।3।।
जब सियासत ठान ली तो जान लो,
हर जगह इज़्ज़त उछाली जाएगी;।।4।।
कर के…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on January 14, 2014 at 10:00am — 32 Comments
बह्रे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
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2122/ 2122/ 2122/ 212
हैं परे सिद्धांत से, आचार की बातें करें;
भोथरे जिनके सिरे हैं, धार की बातें करें;।।1।।
मछलियाँ तालाब की हैं, क्या पता सागर कहाँ?
पाठ जिनका है अधूरा, सार की बातें करें;।।2।।
उँगलियाँ थकने लगीं हैं, गिनतियाँ बढ़ने लगीं,
जब जहाँ मिल जाएँ, बस दो-चार की बातें करें;।।3।।
इन पे यूँ अपनी तिजारत का जुनूं तारी हुआ,
लाश के…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 30, 2013 at 12:30pm — 11 Comments
बह्रे मुज़ारे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक़्बूज़ मख़्बून महज़ूफ़ो मक़्तुअ
1212/ 1122/ 1212/ 22
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हमें अज़ीज़ मुजद्दिद की राह हो जाए;
नज़र में शैख़ की गर हो गुनाह हो जाए;…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on June 3, 2013 at 8:30pm — 20 Comments
बह्रे मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
122/122/122/12
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न पीपल की छाया, न पोखर दिखे;
मेरे गाँव के खेत बंजर दिखे; (1)
हैं शुअरा जहाँ में बड़े नामवर,…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 5, 2013 at 2:00am — 14 Comments
बह्रे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
दिमाग़ी सोच से हट कर मैं दिल से जब समझता हूँ;
ज़माने की हर इक शै में मैं केवल रब समझता हूँ; (१)
ख़ुशी बांटो सभी को और सबसे प्यार ही करना,
यही ईमान है मेरा यही मज़हब समझता हूँ; (२)
मरुस्थल है दुपहरी है न कोई छाँव मीलों तक,
ये दुनिया जिसको कहती है वो तश्नालब समझता हूँ; (३)
कभी गाली, कभी फटकार तेरी, सब सहा मैंने,
मिला है आज हंस कर तू, तेरा मतलब समझता हूँ; (४)
फ़ितूर इस को कहो चाहे सनक या…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on February 5, 2013 at 3:30pm — 17 Comments
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दवा ही बन गई है मर्ज़ इलाज क्या होगा;
उसे सुकून यक़ीनन बहुत मिला होगा; (१)
मैं नूरे-चश्म था जिसका कभी वो कहता है,
नज़र भी आये अगर तो बहुत बुरा होगा; (२)
हमारे बीच मसाइल हैं कुछ अभी बाक़ी,
ठनी है जी में यही, आज फ़ैसला होगा; (३)
जहाँ ख़ुलूस दिलों में है धड़कनों की तरह,
वहीं पे मंदिरों में जल रहा दिया होगा; (४)
तेरे गुनाह की पोशीदगी है दुनिया से,
मगर ख़ुदा की निगाहों से क्या छुपा होगा;…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on November 14, 2012 at 2:30pm — 23 Comments
ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;
मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१)
फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,
चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२)
वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,
आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३)
जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)
दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,
है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५)
गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 3, 2012 at 3:00am — 32 Comments
न जाने भला या बुरा कर रहा है;
वो चिंगारियों को हवा कर रहा है; (१)
वो मग़रूर है किस कदर क्या बताएं?
हर इक बा-वफ़ा को ख़फ़ा कर रहा है; (२)
नहीं उसको कुछ भी पता माफ़ कर दो,
वो क्या कह रहा है, वो क्या कर रहा है; (३)
वो नादान है बेवजह बेवफ़ा की,
मुहब्बत में दिल को फ़ना कर रहा है; (४)
है जिसने भी देखा ये जलवा तेरा उफ़,
वो बस मरहबा-मरहबा कर रहा है; (५)
भुला दी हैं मैंने वो माज़ी की बातें,
तू अब बेवजह तज़किरा…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on August 4, 2012 at 5:30pm — 26 Comments
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on July 11, 2012 at 1:52pm — 19 Comments
बात इतनी बढ़ी के कहर हो गयी;
हमको बचपन में क़ैदे उमर हो गयी;
*
बात कानों में घुलती शहद की तरह,
रात ही रात में क्यूँ ज़हर हो…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on May 4, 2012 at 9:30am — 21 Comments
कुछ दिनों पहले घाट पर अपने मित्र मनोज मयंक जी के साथ बैठा था| रात हो चली थी और घाटों के किनारे लगी हाई मॉइस्ट बत्तियाँ गंगाजल में सुन्दर प्रतिबिम्ब बना रही थीं और मेरे मन में कुछ उपजने लगा जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल को वास्तव में ग़ज़ल का रूप देने में 'वीनस केसरी' जी का अप्रतिम योगदान है और इसलिए उनका उल्लेख करना आवश्यक है| ग़ज़ल में जहाँ-जहाँ 'इटैलिक्स' में शब्द हैं वे वीनस जी द्वारा इस्लाह किये गए हैं| ग़ज़ल की बह्र है…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 22, 2012 at 4:00pm — 28 Comments
बन के काफ़िर जिसको पूजें कोई मूरत ही नहीं,
झेल ली है इतनी मुश्किल कुछ ये आफ़त ही नहीं;
*
साथ मेरे रह न पाया अजनबी ही तू रहा,
साफ़ कहना था तुम्हें मुझसे मुहब्बत ही नहीं;
*
सब के…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 16, 2012 at 6:00pm — 10 Comments
ओ बी ओ मंच के सुधिजनों पिछले दिनों एक रचना पोस्ट की थी जिसे दुर्भाग्यवश मुझे डिलीट करना पड़ गया था| उसी रचना को आधार मान कर एक और रचना की है उन दोनों को ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ दोनों एक ही बह्र और एक ही काफ़िये पर आधारित हैं| पहली रचना कुछ दिन पूर्व ओ बी ओ पर ही प्रकाशित की थी दूसरी अभी हाल में ही लिखी है| मैं नहीं जानता कि ये दोनों ग़ज़ल की कसौटी पर खरी उतरती हैं या नहीं| मंच पर उपस्थित विद्वतजनों से आग्रह है कि वे मुझे मेरी त्रुटियों से अवगत कराएँ और मार्गदर्शन करें| विशेष तौर पर प्रधान…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 5, 2012 at 2:30pm — 41 Comments
इश्क़ की बात चली
रात आँखों में जली
————
मौजूदगी तेरी हर लम्हा मौजूद रहे
तू साथ हो न हो, साथ बावजूद रहे
ख़यालों में गुज़रा ये दिन सारा
शाम यादों में ढली
इश्क़ की बात चली..
————…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 18, 2012 at 5:57pm — 22 Comments
हाँ मेरे पास कोई सहारा नहीं,
मगर मैं बेबस बेचारा नहीं;
*
सोचता हूँ कुछ मैं भी कहूँ अब
मगर ज़ुबान को ये गवारा नहीं;
*
वो जिसे हम अपना समझते रहे,
आज जाना के वो हमारा नहीं;
*
थोड़ी सी ज़मीन मुट्ठी भर आसमान,
आज…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 12:36pm — 18 Comments
मैं पहाड़ी नदी हूँ…
उसी स्वामी के अस्तित्व से उद्भूत होती
उसी का सीना चीरती, काटती
अपने गंतव्य का पथ बनाती
विच्छिन्न करती प्रस्तरों-शिलाओं को
विखंडनों को भी चाक करती…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 11, 2012 at 2:32pm — 17 Comments
यही है ख़ुदाई उसकी, छोटी सी ये इल्तजा,
जो कभी की थी उससे, पूरी वो न कर सका;
तेरे मेरे बीच हैं अब, मीलों के फ़ासले
कभी सामने थे तुम, आज हो गए परे
तेरे मेरे बीच…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 2, 2012 at 2:00pm — 21 Comments
है अर्ज़ जो तेरी मैं दूँगी उसे सुना,
हौले से मेरे कान में कहती है ये सबा;
*
अल्फ़ाज़ बहुत आसमाने दिल पर उमड़ रहे हैं,
कोई नहीं बरसता मगर बनकर मेरी दुआ;…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 1, 2012 at 11:30am — 26 Comments
हुईं थीं मुद्दतें फिर, वक़्त कुछ ख़ाली सा गुज़रा है;
कोई बीता हुआ मंज़र, ज़हन में आके ठहरा है;
कहीं जाऊं, मैं कुछ सोचूँ, न जाने क्या हुआ है,
मेरी आज़ाद यादों पर किस तसव्वुर का पहरा है;…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on February 29, 2012 at 2:51pm — 37 Comments
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