बन के काफ़िर जिसको पूजें कोई मूरत ही नहीं,
झेल ली है इतनी मुश्किल कुछ ये आफ़त ही नहीं;
*
साथ मेरे रह न पाया अजनबी ही तू रहा,
साफ़ कहना था तुम्हें मुझसे मुहब्बत ही नहीं;
*
सब के सब ख़ुशबाश हो जाएँ न ग़म कोई रहे,
काश ऐसा हो सके पर ऐसी सूरत ही नहीं;
*
भूल जा हर रंज उर ग़म माफ़ कर दे तू इसे,
रह गई बस कुछ की अब ये सब की सीरत ही नहीं;
*
हाँ ये मुफ़लिस था सही, लेकिन शराफ़त थी बहुत,
खेलता लाखों में है लेकिन शराफ़त ही नहीं;
*
उसने थामी राह वो के आज ऊंचाई पे है,
रास्ता मुझको मिला जो उस पे शुहरत ही नहीं;
*
जख़्म माज़ी के हैं ताज़ा, हाँ रखे हैं नोच कर,
ज़ह्र मुझको दे दवाओं की ज़रूरत ही नहीं;
*
हम कभी थे हमनवा पर दूर कैसे हो गए,
तेरे मेरे बीच कोई भी अदावत ही नहीं;
*
है पशीमाँ इस वतन का आम इंसाँ देखिये,
हल हो ये मसले यहाँ इसकी इजाज़त ही नहीं;
*
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;
*
जब ऐ वाहिद हर जगह होगा अमन ओ चैन बस,
इब्तिदा इसकी हो ऐसा इक महूरत ही नहीं;
(सुधारे या नए जोड़े गए हिस्सों को लाल रंग में रखा है)
Comment
हार्दिक आभार प्रदीप जी! ऐसी ही सोच रखता हूँ| वैसे 'शठे शाठ्यं समाचरेत' पर गहन विश्वास रखता हूँ| :))
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;
snehi sandip ji, sadar
pyar bantte chalo. badhai.
आदरणीय सौरभ जी,
मैं जानता था कि ऐसी कोई बात आ सकती है| अतः आपके कथनानुसार मैं इस अदना सी ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन करके कुछ ही देर में प्रस्तुत करता हूँ| मुक्तकंठ से सराहना हेतु आपका कृतज्ञ हूँ| सादर, :-)
प्रिय भ्रमर जी,
आपने तो हमेशा से ही सराहा है और सीखने को उद्यत किया है| ये चित्र वास्तव में मेरे ही बनाये हुए हैं मगर मैं चित्रकार नहीं हूँ| :-) आपका हार्दिक आभार,
आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है सरिता जी!! :-)
आदरणीय अभिनव भईया,
सादर, आपके प्रोत्साहन से निश्चय ही और बेहतर करने का संबल प्राप्त हुआ है| हार्दिक आभार आपका,
भूल जा हर रंज उर ग़म माफ़ कर दे तू इसे,
रह गई बस कुछ की अब ये सब की सीरत ही नहीं;
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;
लाललाला लाललाला लाललाला लालला
और ग़ज़ल अपने शेरों के अंतर्निहित कहन को सँवारती हुई ऊँची होती चली गयी है.
लेकिन एक मूल बात जो पकड़ से छूट गयी है वह है, काफ़िया का निर्धारण.
आपके मतले के अनुसार काफ़िया ऊरत होता है. अब इसके बाद सभी शेर ऐसे ही निर्धारित होने चाहिये.
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;
बहुत सुन्दर कहन, बधाई ........
संदीप जी नमस्कार, बहुत खूब..हर शेर अपने आपमें अलग अंदाज़ लिए...बधाई स्वीकार कीजिये...
है पशीमाँ इस वतन का आम इंसाँ देखिये,
हल हो ये मसले यहाँ इसकी इजाज़त ही नहीं;
*
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;
आदरणीय श्री वाहिद जी एक से बढ़कर एक शेर शानदार मुकम्मल ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आपको ! !
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