बह्रे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
दिमाग़ी सोच से हट कर मैं दिल से जब समझता हूँ;
ज़माने की हर इक शै में मैं केवल रब समझता हूँ; (१)
ख़ुशी बांटो सभी को और सबसे प्यार ही करना,
यही ईमान है मेरा यही मज़हब समझता हूँ; (२)
मरुस्थल है दुपहरी है न कोई छाँव मीलों तक,
ये दुनिया जिसको कहती है वो तश्नालब समझता हूँ; (३)
कभी गाली, कभी फटकार तेरी, सब सहा मैंने,
मिला है आज हंस कर तू, तेरा मतलब समझता हूँ; (४)
फ़ितूर इस को कहो चाहे सनक या फिर मेरी आदत,
किसी को कुछ न समझूं मैं, किसी को सब समझता हूँ; (५)
लड़ा दो भाई से भाई बटोरो वोट देकर नोट,
चलन में जो सियासत के है हर करतब समझता हूँ; (६)
धुले ये पाँव तेरे माँ जहाँ पर भी उसी को मैं,
मेरी जन्नत समझता हूँ मेरा मश्रब समझता हूँ; (७)
बड़ा उजला था वो लम्हा गुज़ारा साथ जो तेरे,
फ़लक पर मेरी यादों के उसे कौकब समझता हूँ; (८)
परेशां था मेरा मन, मैं बड़ी उलझन में था लेकिन,
वो बच्चा हंस दिया हर दर्द मैं ग़ायब समझता हूँ; (९)
तश्नालब = प्यासे होंठ, मश्रब = पानी पीने की जगह, कौकब = बड़ा चमकदार सितारा
Comment
दिमाग़ी सोच से हट कर मैं दिल से जब समझता हूँ;
ज़माने की हर इक शै में मैं केवल रब समझता हूँ;....वाह बहुत देर तक तो इसी शेर पर रुकी रही बहुत ही खूबसूरत बात और उससे भी सुन्दर अलफ़ाज़ और अदायगी
जैसे जैसे आगे बढ़ती गयी हर शेर में वही कुछ ताज़गी मिली ..... एक अजब सुकून मिला कि हाँ कुछ बहुत अच्छा पढ़ा
ख़ुशी बांटो सभी को और सबसे प्यार ही करना,
यही ईमान है मेरा यही मज़हब समझता हूँ;.....मन के बहुत करीब लगा यह शेर
बड़ा उजला था वो लम्हा गुज़ारा साथ जो तेरे,
फ़लक पर मेरी यादों के उसे कौकब समझता हूँ;.....वाह
आपका आभार संदीप भाई! और दाद सिर-आँखों पर..!
क्या बात है भाई संदीप जी ...............लाजवाब
लड़ा दो भाई से भाई बटोरो वोट देकर नोट,
चलन में जो सियासत के है हर करतब समझता हूँ;
कितनी सहजता के साथ कहा है आपने वाह वाह
परेशां था मेरा मन, मैं बड़ी उलझन में था लेकिन,
वो बच्चा हंस दिया हर दर्द मैं ग़ायब समझता हूँ; (९)
बेहतरीन बच्चों में बच्चे होना भी लाजवाब रहा
ढेरों दाद क़ुबूल कीजिये साहब
श्रद्धेय विजय जी,
आपका आशीर्वाद प्राप्त हुआ, कृतार्थ हूँ! सादर,
आदरणीय रविकर जी,
भारतीय छंद शास्त्र पर आपकी पकड़ सहज ही प्रकट है! आपसे तआरीफ़ मिली, अच्छा लगा! साभार,
आदरणीय संदीप जी:
इस अच्छी गज़ल के लिए आपको ढेर बधाई।
विजय निकोर
काफी कुछ समेटा गया है-
इस गजल में-
बहुत बढ़िया आदरणीय ||
शुभकामनायें ||
कभी गाली, कभी फटकार तेरी, सब सहा मैंने,
मिला है आज हंस कर तू, तेरा मतलब समझता हूँ; (४)----लाजबाब
फ़ितूर इस को कहो चाहे सनक या फिर मेरी आदत,
किसी को कुछ न समझूं मैं, किसी को सब समझता हूँ; (५)बेमिसाल ,बस क्या कहूँ पूरी ग़ज़ल एक बेहतरीन किताब लगी दाद कबूल कीजिये
आपका हार्दिक आभार Roshni जी..
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