बात इतनी बढ़ी के कहर हो गयी;
हमको बचपन में क़ैदे उमर हो गयी;
*
बात कानों में घुलती शहद की तरह,
रात ही रात में क्यूँ ज़हर हो गयी;
*
कब ये चंदा ढला, कब ये सूरज उगा,
रात आँखों में गुज़री, सहर हो गयी;
*
ज़ेर साया थी दुनिया ये मेरे मगर,
जाने कब ये इधर से उधर हो गयी;
*
मुझको इससे अधिक क्या ख़ुशी होगी अब,
जो लिखी थी ग़ज़ल बा-बहर हो गयी; ---------------- :-)
*
अब तलक तो खुदा को न सजदा किया,
ये दुआ मेरी कैसे असर हो गयी;
*
बात बनते-बनाते चली आई पर,
आज इस मोड़ पर कुछ कसर हो गयी;
Comment
सादर भ्रमर जी राधे-राधे.. बस व्यस्त हूँ इसलिए समय नहीं निकाल पा रहा| आपके लिए शब्दों के अर्थ यही दे देता हूँ... :-))
ज़ेरसाया होना यानी किसी की छत्रछाया में होना और बह्र यानी छंद तो बा-बह्र यानी छंद में होना... मात्राओं में होना..
बात बनते-बनाते चली आई पर,
आज इस मोड़ पर कुछ कसर हो गयी;
सहर,ज़ेर,बा-बहर............
संदीप भ्राता जी आज कल कहाँ व्यस्त हैं .....बात बनाइये ..मेरे लिए उर्दू और फ़ारसी थोडा मुश्किल होती है
उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभारी हूँ सरिता जी!
श्री छोटू जी प्रोत्साहन हेतु हार्दिक आभार!
संदीप जी नमस्कार, सीधे सादे शब्दों में सीधी सदी बात को बा बह्र तो होना ही था...उम्दा अभिव्यक्ति...बधाई...
प्रिय भ्रमर जी,
राधे-राधे! मेरा वादा अब भी अपनी जगह क़ायम है ये दीगर है कि इस ग़ज़ल में कोई भी ऐसा लफ़्ज़ नहीं है जो इतना मुश्किल हो कि समझा न जा सके सभी के सभी आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं| प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ|
वीनस जी,
नमस्ते,
बह्र के बारे में तो यही कहूँगा कि अभी तक कच्चा खिलाडी ही हूँ हाँ आप लोगों के सान्निध्य में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है| कल से मैं इन्ही शब्दों को लेकर विचारमग्न था किन्तु अभी आपकी प्रतिक्रिया के पश्चात् सभी शंकाएँ दूर हो गई हैं अन्यथा मैं आज शाम तक एक डिस्कशन ज़रूर पोस्ट करता| सहयोग और समर्थन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद| :-)
बात कानों में घुलती शहद की तरह,
रात ही रात में क्यूँ ज़हर हो गयी;
बात बनते-बनाते चली आई पर,
आज इस मोड़ पर कुछ कसर हो गयी;
काशी वासी भाई ..बहुत खूब ..मन ये गाने लगा गुनगुनाने लगा ..जागता मै रहा रात भर इस कदर.. ना जाने भ्रमर कब सुबह हो गयी .लेकिन आप ने वादा किया था उर्दू लफ्जों को हम सब को सिखाते रहेंगे ?... शुभ कामनाएं ..जय श्री राधे -भ्रमर ५
अच्छी ग़ज़ल है
संदीप जी आपकी बह्र की पकड़ तो तब ही स्वयं सिद्ध हो गयी थी जबी आपने पिछले तरही मुशायरे में दो बा-बह्र ग़ज़ल पेश की थी
आज इस ग़ज़ल में भी आपने बह्र को बहुत सुंदर ढंग से निभाया है जिसके लिए आपको विशेष धन्यवाद
अब अगली सीढी चढें और जो योगराज सर ने संकेत किया है उस पर विशेष ध्यान दें ...
इस ग़ज़ल में काफिया चुनते समय आपने कुछ देशज शब्द भी रखे हैं , ग़ज़ल में इसको प्रयोग करने से बचना चाहिए
नियमानुसार इस तरह के शब्द के प्रयोग की छूट तभी मिलाती है जब पूरी ग़ज़ल ही देशज हो ...
और हम्काफिया शब्दों की भी कोई कमी नहीं है कि मजबूरन आपको ऐसा करना पड़े
बहरहाल, ग़ज़ल के लिए और आपकी उत्तरोत्तर प्रगति के लिए पुनः बधाई और शुभकामनाएं
श्री अभिनव भईया,
तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आपकी इस दाद पर| :-)
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