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अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।
अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥


नजरों से दूरी तो,दूरी ही नहीं होती।
दिल से अलग अपने,होते हैं कहां प्रियवर॥


आंखों में आंसू हैं,अपनों के लिए ही हैं।
गैरों के लिए हम,रोते हैं कहां प्रियवर॥


जीवन के दो राहे पर,मिलते हैं बिछड़ते हैं।
सदियों के लिए कोई,मिलते हैं कहां प्रियवर॥


तुम्हें याद सुनो मेरी,आये या न आये।
तेरे याद में हम शब भर,रोते हैं कहां प्रियवर॥


राह का इक पत्थर,समझो न मुझे फेंको।
पारसमणि सबको,मिलते हैं कहां प्रियवर॥


आज सजी महफिल,स्वागत है सबका।
ऐसे हंसी महफिल,सजते हैं कहां प्रियवर॥


बन फूल सदा महको,हो जग में नाम तुम्हारा।
पतझर के लिए गुल,खिलते हैं कहां प्रियवर॥

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Comment by राज लाली बटाला on March 8, 2012 at 9:42pm

 Ganesh Jee "Bagi" जी के कमेन्ट पर गोर फुरमाए !! प्रयास यारी रखे !! 

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 6, 2012 at 11:20am
आभार आदरणीय!
Comment by Harish Bhatt on March 6, 2012 at 7:51am

प्रिय विन्‍ध्‍येश्‍वरी जी बहुत ही शानदार गजल

अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।
अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥

हार्दिक बधाई.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 4, 2012 at 6:53pm

विन्देश्वरी प्रसाद जी, आप मुख्य पृष्ठ के बोटम बार में देखे , कुछ लिंक ग़ज़ल से सम्बंधित दिया गया है |

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 4, 2012 at 6:42pm
आभार कुशवाहा जी।
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 4, 2012 at 2:10pm

राह का इक पत्थर,समझो न मुझे फेंको।
पारसमणि सबको,मिलते हैं कहां प्रियवर॥

sundar bhav. badhai.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 4, 2012 at 1:53pm
आभार आदरणीय बागी जी!
मैं अभी गजल की पढ़ाई में L.K.G. में हूं-ये
बह्र,काफिया,रदीफ आदि मेरी समझ में
बहुत कम आता है।
और मैं विभ्रम नहीं बल्कि अज्ञान में हूं।
आपसे निवेदन है कि उदाहरण सहित
विस्तार से समझाने की कृपा करें।जिससे
मैं गजल के व्याकरण,शिल्प और कहन
आदि को समझ सकूं।
आपने एक छोटे से प्रयास को समय दिया इसके लिए एकबार पुन: आभार।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 4, 2012 at 1:17pm

विन्धेश्वरी जी, जैसा कि मैं आदरणीया राजेश कुमारी जी की टिप्पणी के आलोक में आपका प्रतिउत्तर पढ़ा, मुझे लगा कि आप कई चीजों के बारे में कन्फ्यूजन में है जैसे "बहर" , आप जिसकी बात कर रहे है वो बहर नहीं काफिया(तुक) है, और काफियाबंदी के लिए व्याकरण से समझौता नहीं किया जा सकता |

बहर :- बहर एक मात्रिक क्रम होता है जो पूरी ग़ज़ल में निभाना पड़ता है |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 4, 2012 at 1:07pm

विन्धेश्वरी प्रसाद जी, कथ्य बहुत ही अच्छे है, मेरे ख्याल से शिल्प पर नजरेसानी की आवश्यकता है, मतला के अनुसार आप ने "ओते" काफिया तय किया है, किन्तु शे'र न. ४,६,७ व ८ में निभा नहीं सके है,

कहन पर दाद कुबूल करे |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 4, 2012 at 1:04pm

is hal ke liye rana prataap ji ko aamantrit karo

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