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चढ़ल जवानी कै उदल जब,देहिया गढ़ के ऊपर नाय।
नैना यकटक देखन लागे,पुरवा चले देह घहराय॥
चन्द्रमुखी जब तिरछा ताकै,तन के आरपार होइ जाय।
मारै मुस्की जब धीरे से,दिल कै टूक-टूक उड़ि जाय॥
उड़ै दुप्ट्टा जब कान्हे से,मानौ दुइ गिरिवर बिलगाय।
देख के गोरिक भरी जवानी,लरिके मंद-मंद मुस्काय॥
आओ पंचो प्यार कै आल्हा,सुनि लौ आपन कान लगाय।
अइसन मौका फिर जिन्गी में,शायद मिलै न कब्भो आय॥
जेका यह जिन्गी में कब्भो,प्यार के रोग लगा है नाय।
मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन गवाय॥
दादा माइ मिलैं जनमतै,गोरिया मिलै जनमतै नाय।
जब्बै भइय्या मौका पाओ,चउवा छक्का मारौ जाय॥

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 7:52pm
आभार बस्तीबी जी!आपने तो ऐसा ताव दिया कि सचमुच सूली पर चढ़ने को जी कर रहा है।हा........हा.........हा........हा.......हा.......
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 14, 2012 at 7:34pm

ऐ शाबाश, ज़बांज,

मुहब्बत मे भी चढ़ जाएँगे हम सूली पर,

जो निकले हैं आज वो दिल की वसूली पर :)

बहुत सही लिखा है आपने. बधाइयाँ.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 5:42pm
आदरणीय मयंक जी! प्रेम में अगर उत्साह मिल रहा हो तो क्या यह गलत माना जा सकता है?कृपया उचित मार्गनिर्देशन करने का कष्ट करें।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 5:38pm
'बड़े छन्दों में लिखी गई वीररस की कविताएं कम प्रभाव छोड़ती है' मैं इस वाक्य का मतलब नहीं समझ पाया।क्या छन्द भी बड़े छोटे होते हैं?
Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 14, 2012 at 5:17pm

दादा माइ मिलैं जनमतै,गोरिया मिलै जनमतै नाय।
जब्बै भइय्या मौका पाओ,चउवा छक्का मारौ जाय॥....आदरणीय विध्येश्वरी जी मैं श्रृंगार का कतई विरोधी नहीं हूँ और साहित्य में नित नूतन प्रयोग को साहित्य की पुष्टि तथा भाषा के प्रचार की दृष्टि से अपरिहार्य मानता हूँ|रस कभी भी किसी विधा के मोहताज नहीं होते किन्तु बड़े छंदों में लिखी गयी वीर रस की कवितायें अपना प्रभाव कम छोडती हैं|OBO पर तो मेरा नया जन्म है और इस मंच के लिए मैं एक शिशु के सामान हूँ|ऊपर लिखी पंक्तियाँ द्विअर्थी सी प्रतीत होती हैं|क्षमा कीजियेगा आपका काव्य शिल्प की दृष्टि से निःसंदेह उत्तम है और इस प्रेम में भी अकुलाहट की स्पष्ट अनुभूति देती है|यह श्रृगार ही है फिर भी यह अपनी प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाया है और प्रत्येक पंक्ति में वीर रस का स्थायी भाव उत्साह झलका ही है|

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 5:07pm
अभिनव जी आपका हार्दिक आभार।यह आप सब गुरूजनों का आशीर्वाद है।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 5:05pm
मयंक जी सर्वप्रथम रचना पढने के लिए आभार।आपका सुझाव सिर आंखों पर है।
जैसाकि आपने कहा कि आपके यहां आल्हा का बहुत सम्मान है।मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसे श्रृंगार रस में लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य इसके सम्मान को कम करना नहीं था बल्कि एक प्रयोग करना था।ये सही है कि आल्हा वीररस का काव्य है लेकिन-
क्या साहित्य में प्रयोग की अनुमति नहीं है?
क्या रस भी किसी विधा के मोहताज होते हैं?
बहरहाल मैं आपके सुझाव पर अमल करूंगा।और जो यह सुझाव दिया कि आल्हा में पारम्परिक भावना पर किया जाना चाहिए तो मैंने इस बिंदु पर एक नया आल्हा लिख लिया है जल्दी ही पोस्ट करूंगा।
Comment by Abhinav Arun on March 14, 2012 at 2:57pm

आदरणीय श्री विन्ध्येश्वरी जी आल्हा जैसी आज के दौर में कम प्रचलित विधा पर आपने कलम चलाई बहुत बहुत बधाई आपको रचना में प्रवाह और विषय की गहराई काबिले तारीफ है !!

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 14, 2012 at 8:59am

विन्ध्येश्वरी भाई सादर वन्देमातरम...जहाँ तक मैं जानता हूँ...आल्हा वीर रस में लिखा जाय और जागृति उत्पन्न करने के लिए लिखा जाय तो ही उत्तम है..आल्हा हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है..मैं मीरजापुर की उस भूमि से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ आल्हा को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है|मैं प्रेम का विरोधी नहीं और आपके आल्हा के क्षेत्र में किये गए कार्यों की प्रशंसा भी करता हूँ ..किन्तु आपसे एक निवेदन है की संक्रांति की इस वेला में आल्हा की पारम्परिक भावना पर भी काम करे|साभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 14, 2012 at 8:32am

अनचोके में गरई धराइल, ओसहीं जइसे, कबो त छूँछे कबो त वाह-वाह !!

वाह गणेश भाई.

 

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