अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।
अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥
नजरों से दूरी तो,दूरी ही नहीं होती।
दिल से अलग अपने,होते हैं कहां प्रियवर॥
आंखों में आंसू हैं,अपनों के लिए ही हैं।
गैरों के लिए हम,रोते हैं कहां प्रियवर॥
जीवन के दो राहे पर,मिलते हैं बिछड़ते हैं।
सदियों के लिए कोई,मिलते हैं कहां प्रियवर॥
तुम्हें याद सुनो मेरी,आये या न आये।
तेरे याद में हम शब भर,रोते हैं कहां प्रियवर॥
राह का इक पत्थर,समझो न मुझे फेंको।
पारसमणि सबको,मिलते हैं कहां प्रियवर॥
आज सजी महफिल,स्वागत है सबका।
ऐसे हंसी महफिल,सजते हैं कहां प्रियवर॥
बन फूल सदा महको,हो जग में नाम तुम्हारा।
पतझर के लिए गुल,खिलते हैं कहां प्रियवर॥
Comment
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प्रिय विन्ध्येश्वरी जी बहुत ही शानदार गजल
अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।
अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥
हार्दिक बधाई.
विन्देश्वरी प्रसाद जी, आप मुख्य पृष्ठ के बोटम बार में देखे , कुछ लिंक ग़ज़ल से सम्बंधित दिया गया है |
राह का इक पत्थर,समझो न मुझे फेंको।
पारसमणि सबको,मिलते हैं कहां प्रियवर॥
sundar bhav. badhai.
विन्धेश्वरी जी, जैसा कि मैं आदरणीया राजेश कुमारी जी की टिप्पणी के आलोक में आपका प्रतिउत्तर पढ़ा, मुझे लगा कि आप कई चीजों के बारे में कन्फ्यूजन में है जैसे "बहर" , आप जिसकी बात कर रहे है वो बहर नहीं काफिया(तुक) है, और काफियाबंदी के लिए व्याकरण से समझौता नहीं किया जा सकता |
बहर :- बहर एक मात्रिक क्रम होता है जो पूरी ग़ज़ल में निभाना पड़ता है |
विन्धेश्वरी प्रसाद जी, कथ्य बहुत ही अच्छे है, मेरे ख्याल से शिल्प पर नजरेसानी की आवश्यकता है, मतला के अनुसार आप ने "ओते" काफिया तय किया है, किन्तु शे'र न. ४,६,७ व ८ में निभा नहीं सके है,
कहन पर दाद कुबूल करे |
is hal ke liye rana prataap ji ko aamantrit karo
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