नज़्म - निमिष भर को उथल है !
सफ़र कटने में अंदेशा नहीं है
मगर सोचा हुआ होता नहीं है
कई लोगों को छूकर जी चुका हूँ
नहीं अफ़सोस कि अब भी रुका हूँ
मुबारक हो उन्हें जो बढ़ गए हैं
हजारों सीढियां जो चढ़ गए हैं
नज़र उनको खुदा ऐसी अता कर
उन्हें भी रास्ता दें और बता कर
जो सांचों से परे ढलते नहीं हैं
कभी जो लीक पर चलते नहीं हैं
हाँ उनका निर्मिती में हक़ तो होगा
कभी जो अपने मुंह कहते नहीं हैं
यकीनन मांद में रहते नहीं हैं
मगर उनकी ज़बां खामोश रहकर
बहुत कुछ कह रही है और सहकर
जो अपने ही बदन को बींध कर भी
कभी सूली तलक पहुंचे नहीं हैं
नहीं उत्सव कभी होता है उनका
जो खेतों और खलिहानों में रहकर
किताबों की मचानों से उतरकर
सतह पर रेंगने भर को हैं आतुर
कई अजगर यहाँ मुंह बाए बैठे
हजारों बार सांसें भर रहे हैं
कई अल्फ़ाज़ पल पल मर रहे हैं
ये जंगल और वीराना हुआ सा
नदी पथरीली में कैसी उदासी
ये कंकर की सदा कैसी ज़रासी
हमारे कानों को छूकर के गुज़री
निमिष भर को उथल है
है पर्वत और जल है
कोई रस्ते की खातिर टूटता सा
उसूलों के भंवर में छूटता सा
कोई अपनी ऊंचाई और परचम
का दम भरते हुए ठहरा हुआ है
कि जिसके नाम का पहरा हुआ है
उसी के वास्ते और उसकी खातिर
खुदारा दिल मेरा करता दुआ है .
- अभिनव अरुण
(12032012)
Comment
कोई रस्ते की खातिर टूटता सा
उसूलों के भंवर में छूटता सा
कोई अपनी ऊंचाई और परचम
का दम भरते हुए ठहरा हुआ है
कि जिसके नाम का पहरा हुआ है
उसी के वास्ते और उसकी खातिर
खुदारा दिल मेरा करता दुआ है .
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति. बधाई.
हार्दिक आभार श्री आशीष जी और श्री संदीप वाहिद जी !!
आदरणीय अभिनव जी,
कभी जो लीक पर चलते नहीं हैं
हाँ उनका निर्मिती में हक़ तो होगा
बहुत ही ख़ूबसूरत पंक्तियाँ| साभार,
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