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याद है मुझे !
पिछला सावन
जमकर बरसी थी
घटाएँ
मुस्कुरा उठी थी पूरी वादीयाँ
फूल, पत्तियां मानो
लौट आया हो यौवन

सब-कुछ हरा-भरा
भीगा-भीगा सा
ओस की बूँदें
हरी डूब से लिपट
मोतियों सी
बिछ गई थी
हरे-भरे बगीचे में
याद है मुझे !

गिर पडा था मैं
बहुत रोया
माँ ने लपक कर
समेट लिया था
उन मोतियों को
अपने आँचल में
मेरे छिले घुटने पे
लगाया था मरहम
पौंछ कर मेरे आँसू और
मुझे बगीचे के
खिले फूलों को दिखा कर
कहा था
देखो ! कितने अच्छे लग रहे हैं
मुस्कुराते हुवे
तुम भी अच्छे लगते हो
ऐसी ही हँसते हुवे
मोतियों की माला
आँचल से निकल
छिटक पड़ी थी
हरे-भरे बगीचे में
उस पल
पूरा सावन सिमट आया था
मेरे घर के बगीचे में
याद है मुझे !

***

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Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 11:39pm
सुन्दर कविता ... सुधियों के झरोखों से !

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 17, 2010 at 10:57pm
बहुत खूब आदरणीय नरेन्द्र व्यास भाई जी , यादों के झरोखे से निकल कर आई यह कविता वाकई खुबसूरत यादों की तरह ही प्यारी है , सुंदर और मनभावन रचना |
Comment by आशीष यादव on September 17, 2010 at 1:46am
vyas ji pranaam,
aapne ek hi kawita me saawan ki hari bhari waadiyo ko mata ke pyar ko pushpo ki muskuraahat ko aur bachpan ke ullaas ko sajiw roop se chitrit kiya hai. bahut achchhi kawita hai yah. bahut achchhi.

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