(मात्रिक छंद)
उल्लाला = १५,१३ मात्रा
(मैथिली शरण गुप्त जी ने इस छंद पर कई रचनाएँ लिखी है)
(तुम सुनौ सदैव समीप है,जो अपना आराध्य है.)
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नहीं बड़ा परमार्थ से अब , धर्म है इस जहान में.
कभी स्वार्थ टिक पाता नहीं,किसी आत्मा महान में.
स्वारथ में जो प्रतिपल रहा ,कलंक है नर जाति पर.
आराध्य वही मानव जिसे,न फ़िक्र जाति विजाति पर.
है नाम पुनीत दधीच का,जन हित में जीवन दिया.
रानी थी एक झाँसी हित,कुर्बां कर यौवन दिया.
कर चयन स्वारथ की सीढ़ी , जो कोई आगे बढ़े.
प्रभु न चलूँ पद चिन्ह उसके,जो भी यह सीढ़ी चढ़े.
Comment
श्री अम्बरीष सर मात्रिक छंद प्रकरण के अंतर्गत मुझे उल्लाला का सिर्फ एक ही प्रकार पता था.आपने एक और प्रकार बताकर मेरा ज्ञानवर्धन किया इसके लिए आपको कोटि कोटि धन्यवाद एवं वंदन
आदरणीय अम्बरीष सर सादर प्रणाम , मैंने अपने हिसाब से स्वार्थ में मात्रिक गणना ४ और परमार्थ में ६ की गणना की थी , मेरे हिसाब हिंदी छंद में जिस अक्षर पर अं की मात्रा और र्थ की मात्रा लगी होती है वह अक्षर दीर्घ हो जाता है. अगर ऐसा सही है तो मेरे छंद में मात्रिक वज्न सही है .कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें.
सादर
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भाई शैलेन्द्र जी ! उल्लाला छंद के कई प्रकार भी होते हैं परन्तु १३ + १३ मात्रा का उल्लाला छंद अधिकतर प्रयोग में आता है ! छप्पय में प्रयुक्त उल्लाला १५+१३ मात्रा का ही होता है !
यह छंद मेरे लिए बिलकुल नया है,, इस पोस्ट के लिए और इस नई जानकारी के लिए बधाई और साधुवाद स्वीकारें
मृदु जी आपका रचना कर्म मुझे प्रोत्साहित करता है कि मैं भी छ्न्द में कुछ लिखूं... जल्द ही आपकी पोस्ट पर पुनः मनन करने के लिए आता हूँ शायद कुछ सीख सकूं,, अभी तो छ्न्द के मामले में अनाडी हूँ ...
भाई शैलेन्द्र जी ! उल्लाला रचने का आपका यह प्रयास बहुत भाया ! भाव पक्ष की दृष्टि से यह उत्तम है ........फिर भी निम्नलिखित पर कृपया एक दृष्टि डाल लें !
१४ १३
११२१ २ ११ ११ १२ , २ २१ ११ १२१ २
//परमार्थ से बढ़ कर नहीं, है धर्म इस जहान में.
स्वार्थ टिक पाता नहीं है,किसी आत्मा महान में.//
२१ ११ २२ १२ २ , १२ २२ १२१ २
१४ , १३
(परमार्थ =५ मात्रा , स्वार्थ-=३ मात्रा)
१४ , १३
११११ ११ २ २१ २, १२१ २ ११ २१ ११
//प्रतिपल रहा जो स्वार्थ में,कलंक है नर जाति पर.
उपरोक्त सभी के प्रथम व तृतीय चरण में एक एक मात्रा कम है |
सुझाव :
“नहीं बड़ा परमार्थ से अब, धर्म है इस जहान में.” इसी प्रकार अन्य को भी सुधारा जा सकता है |
"प्रभु न चलूँ पद चिन्ह उसके,जो भी इस सीढ़ी चढ़े."
में 'इस' को 'यह' करना बेहतर रहेगा |
आदरणीय प्रदीप सर सादर प्रणाम , रचना पर आपका स्नेह मिला बहुत बहुत आभार
परमार्थ से बढ़ कर नहीं,है धर्म इस जहान में.
स्वार्थ टिक पाता नहीं है,किसी आत्मा महान में.
प्रतिपल रहा जो स्वार्थ में,कलंक है नर जाति पर.
आराध्य वही मानव जिसे,न फ़िक्र जाति विजाति पर.
स्नेही मृदु जी , सादर , सुन्दर अनुकर्णीय विचार, बधाई.
आदरणीय सतीश सर सादर नमन, आपकी प्रतिक्रिया मिली रचना सार्थक हो गयी, उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार
स्वार्थ को सीढ़ी बनाकर, जो कोई आगे बढ़े.
प्रभु न चलूँ पद चिन्ह उसके,जो भी इस सीढ़ी चढ़े.
बहुत खूब ....... सुन्दर ख्याल .... बेहतरीन कहन ....... उम्दा शिल्प ..... दाद कुबूल फरमाएं मृदु जी
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