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बाहर बहुत बर्फ है

तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह करके
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियां ..
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड और देवदार के नीचे
झीलों में खून का गंधक है
और पी आई है वह
पानी के धोखे में सारी झेलम
अजीब सी बू में
मिमियाती ...
किसी अंदेशे को सूंघती
कानों में फुसफुसाना चाहती है
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में कैद
सिर्फ बिफरन बन
रिरियाते हैं ...
तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है
बाहर बहुत बर्फ है !


अपर्णा

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Comment by Aparna Bhatnagar on September 21, 2010 at 7:58am
Thanks Ganesh ji @biresh ji...

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 20, 2010 at 11:31pm
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में कैद
सिर्फ बिफरन बन
रिरियाते हैं ...
तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है
बाहर बहुत बर्फ है !
शानदार , तारीफ़ के लायक ये कविता, बहुत खूब , बधाई स्वीकार करे इस सुंदर कृति पर ,
Comment by Biresh kumar on September 20, 2010 at 11:01pm
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं रेशमी शालू

lajawab !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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