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ग़ज़ल- पल्लव पंचोली "मासूम"

फिर उसकी महक ले हवाएँ आईं
शायद काम मेरे मेरी दुआएँ आईं

आँखों में फिर थोड़ी चमक है सबकी
जाने क्या संग अपने ले घटाएँ आई

कौन बचा है खुदा के इंसाफ़ से यहाँ
सब के हिस्से मे अपनी सजाएँ आईं

बीमार कहाँ मरते हैं मरज से यहाँ
काम मारने के अब तो दवाएँ आईं

जब लगा ख़तरे मे है कोई "मासूम"
दौड़ चली शहर की सब माएँ आईं ,

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 11:04pm
बीमार कहाँ मरते हैं मरज से यहाँ
काम मारने के अब तो दवाएँ आईं,
बहुत ही उम्द्दा ख्यालात, कमाल है पल्लव भाई, आप तो जबरदस्त शे'र कहे है, बधाई आपको, उम्मीद है आगे भी आपकी और रचनायें तथा अन्य रचनाओं पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणियाँ प्राप्त होती रहेंगी |
Comment by Julie on September 23, 2010 at 12:09am
‎/// कौन बचा है खुदा के इंसाफ़ से यहाँ...
सब के हिस्से मे अपनी सजाएँ आईं...///

पल्लव जी बहुत अच्छा लगा हमें आपका ये वाला शेर... सजाओं से बचना नामुमकिन है... सबके हिस्से आनी ही है,,, खूब...!!

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