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वो गया तो गया चांदनी भी गयी.
भागते सावनों की रजा रह गयी.

ज़ाहिरा जागते तीरगी सो गयी.
जाग जा अब न तेरी धमक रह गयी.

ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.

दोड़ते हाँफते रहगुज़र हम रहे
होंसले में कभी ना कमी रह गई

जानता था कि वो चापलूसी न थी
मिलन क़ी आरज़ू थी, रह गई.

या खुदा आसरा ताउम्र तू रहा
आजमा ले मुझे, ना कमी रह गई.

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 26, 2010 at 4:33pm
आदरणीय चेतन प्रकाश जी
आपका प्रयास अच्छा है| शायद आपने यह रचना तरही मुशायरे के लिए लिखी रही होगी| विलम्ब से पहुँचने के कारण शामिल ना हो सकी अन्यथा वहा इस पर विस्तृत चर्चा हो सकती थी| फिर भी जितना मै जनता हूँ ईमानदारी से आपके सामने रख रहा हूँ|
शिल्प के लिहाज से रद्दीफ़ और काफिये स्पष्ट ही नही है इसलिए इनके बारे में बात करना बेमानी होगा| बहर की कसौटी पर रखने पर अंत से दूसरे शेर का मिसरा ए सानी और अंतिम शेर का मिसरा ए ऊला बे बहर है|
कथ्य या खयाल की बात करे तो सभी शेरो में दोनों मिसरों में सामंजस्य की कमी दिखी|
उदहारण के लिए यदि यही शेर ले जो अच्छा बनते बनते रह गया|
ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.

पहले मिसरे में जिंदगी को आपने रेत का ढेर कहा ..फिर आप कहते है की आंधियों से सामना "न" था ..फिर जिंदगी को रेत का ढेर क्यूँ कहा? i
मेरा उद्देश्य दोष निकालना नही है हां परन्तु एक रचनाकार को गुमराह करना भी नही है| आशा है आप अन्यथा ना लेंगे|

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 24, 2010 at 8:05am
चेतन साहब, बहुत अच्छे ख्यालात का इज़हार किया है आपके अपनी रचना में ! ये शेअर तो वाकई कमल का है :
//ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.//
लेकिन आपकी ये रचना किसी तरह से भी ग़ज़ल शिल्प की परिधि में नहीं आती है, लिहाज़ा इसे शीर्षक वाली कविता कहें तो ज्यादा उचित होगा !
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on September 23, 2010 at 9:17pm
वो गया तो गया चांदनी भी गयी.
भागते सावनों की रजा रह गयी.

मैं भी बंधना चाहता हूँ राखी के बाद ये आपकी दूसरी खुबसूरत ग़ज़ल पढ़कर बहुत ही ख़ुशी हुई.....बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल है चेतन जी.....ऐसेही लिखते रहे...आशा है आगे भी निरंतर ऐसे ही आपकी रचनाएँ पढने को मिलती रहेंगी......

आपका ही अपना...
प्रीतम तिवारी(प्रीत)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2010 at 9:32am
आदरणीय चेतन प्रकाश जी,
प्रणाम,
मैने आप की ओपन बुक्स ऑनलाइन पर प्रकाशित पहली रचना "मैं बांधना चाहता हूँ राखी" पढ़ा था, मुझे काफी अच्छी रचना लगी थी,
आज पुनः आपकी कृति "ग़ज़ल .......कमी रह गई" सामने है, मुवाफ कीजियेगा पर शीर्षक कुछ ऐसा लग रहा है कि "ग़ज़ल की कमी रह गई" यह रचना जो है दरअसल इसमे थोड़ी भी ग़ज़ल है ही नहीं, जितना मैं अभी तक समझा हूँ उसके हिसाब से ग़ज़ल के लिये कुछ नियम क़ानून बने है जिसको ध्यान मे रखकर ही ग़ज़ल कही जाती है, यहाँ तो ना मतला समझ मे आ रहा है ना काफिया और न ही रदीफ़, बहर की बात करना तो बाहर की बात है, यदि फिर भी आप इसे ग़ज़ल कहना चाह रहे है तो यह आपकी मर्जी आखिर रचना है आपका |
धन्यवाद |

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