For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सलुम्बर की वह काव्य संध्या


सलुम्बर की वह काव्य संध्या


आप हाड़ी रानी की कथा से कितने परिचित हैं , नहीं जानती .. मैं स्वयं भी कितना जानती थी , इस रानी को ! लेकिन इस नाम से पहला परिचय झुंझुनू शहर में जोशी अंकल द्वारा हुआ था . उन दिनों हम कक्षा नौ में थे . पापा की पोस्टिंग इस शहर में हुई ही थी. नए मित्र , नया परिवेश . मन में कई उलझनें थीं. जोशी अंकल हमारे पड़ोसी थे. बेटियां तो उनकी छोटी -छोटी थीं पर अंकल खासे बुज़ुर्ग लगते थे .. उनमें कुछ ऐसा था कि देखते ही श्रद्धा उत्पन्न होती. सुबह -सुबह उनके मधुर कंठ से जब श्लोक फूटते तो अनायास उस ओर ध्यान खिंच जाता , यद्यपि अर्थ एक न समझ आता था. ये गीतों वाले अंकल अब अकसर घर आने लगे थे और कारण था -पापा और उनका महकमा एक होना - ये बात हमारी बाल-बुद्धि की देन थी ; लेकिन बाद को कुछ और बातें भी समझ आने लगीं . पापा और अंकल का साहित्य प्रेम - दोनों को कविता का शौक ! फर्क इतना कि पापा क्योंकि खुद भी लिखा करते थे इसलिए अपनी भी यदाकदा सुनाते पर अंकल को दैवी कृपा से सधा कंठ मिला था इसलिए जो कविता सुनाते वह मिश्री -सी हवा में घुल जाती. एक दिन ऐसा ही कोई गीत वह सुना रहे थे. गीत drawing room में चल रहा था. हमारा study room काफी दूर था , किन्तु स्वर इस तरह मुखर जान पड़ते जैसे कोई जलतंत्र बजा रहा हो . मन न माना तो पढ़ाई छोड़ मेहमान कक्ष में आ गए, बहुत धीरे से प्रवेश किया ताकि कोई व्यवधान पैदा न हो , यदि इस बात की तमीज न भी होती तो भी कोई ख़ास फर्क न पड़ना था क्योंकि गायक और उनकी गायकी में खोये श्रोता सामान रूप से एक-दूसरे में विलीन जान पड़ते थे. स्वर आरोह पा रहा था ... जैसे कई तलवारें चमक उठी हों ! अब स्वर जिस तरह उठा उसी तरह अवरोह भी पा गया किन्तु गहरी निस्तब्धता के साथ . सभी की आँखें पथरायी हुईं .. विचलित .. अश्रुपूरित ! आह क्या था उस गान में ऐसा! गीत राजस्थानी में था इसलिए समझने में दिक्कत हुई , सो पापा ने उसके अर्थ बाद को बिठा कर समझाए I फिर तो ये गीत लगभग हर महफ़िल की जान बन बन गया . दिल को छूने वाला ये गीत हमें कंठस्थ क्यों न हो पाया ; इसका आश्चर्य और मलाल है .. खैर कुछ पंक्तियाँ दिमाग में जड़ गयीं जिन्हें लिखने का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं -



पैल्याँ राणी ने हरख हुयो,पण फेर ज्यान सी निकल गई |

कालजो मुंह कानी आयो, डब-डब आँखङियां पथर गई |

उन्मत सी भाजी महलां में, फ़िर बीच झरोखा टिका नैण |

बारे दरवाजे चुण्डावत, उच्चार रह्यो थो वीर बैण |

आँख्या सूं आँख मिली छिण में , सरदार वीरता बरसाई |

सेवक ने भेज रावले में, अन्तिम सैनाणी मंगवाई |

सेवक पहुँच्यो अन्तःपुर में, राणी सूं मांगी सैनाणी |

राणी सहमी फ़िर गरज उठी, बोली कह दे मरगी राणी |



फ़िर कह्यो, ठहर ! लै सैनाणी, कह झपट खडग खिंच्यो भारी |

सिर काट्यो हाथ में उछल पड्यो, सेवक ले भाग्यो सैनाणी |

सरदार उछ्ल्यो घोड़ी पर, बोल्यो, " ल्या-ल्या-ल्या सैनाणी |

फ़िर देख्यो कटयो सीस हंसतो, बोल्यो, राणी ! राणी ! मेरी राणी !



तूं भली सैनाणी दी है राणी ! है धन्य- धन्य तू छत्राणी |

हूं भूल चुक्यो हो रण पथ ने, तू भलो पाठ दीन्यो राणी |

कह ऐड लगायी घोड़ी कै, रण बीच भयंकर हुयो नाद |

के हरी करी गर्जन भारी, अरि-गण रै ऊपर पड़ी गाज |



फ़िर कटयो सीस गळ में धारयो, बेणी री दो लाट बाँट बळी |

उन्मत बण्यो फ़िर करद धार, असपत फौज नै खूब दळी |

सरदार विजय पाई रण में , सारी जगती बोली, जय हो |

रण-देवी हाड़ी राणी री, माँ भारत री जय हो ! जय हो !



वही गीत हाड़ी रानी का .. नयी वधू सलुम्बर ठिकाने के रावत रतन सिंह चुण्डावत की रानी! एक ओर शत्रु औरंगजेब की ललकार और दूसरी तरफ नवब्याहता रानी ! आखिर निशानी के रूप में सैनाणी मांग बैठे ; और रानी ने क्या किया - प्रमत्त हो अपना सर काट कर थाल में भेज दिया ! बस यही हाड़ी रानी हमारे १४ वर्षीय मन में जगह बना बैठी ! कभी भूल नहीं पाए - न हाड़ी रानी को , न इसे गाने वाले जोशी अंकल को ! आज भी जब यहाँ लिख रहे हैं तो अंतिम पंक्तियों तक आते-आते गला रुंध गया है , आंसू बह चले हैं .. और हम हठात हैं .. इतिहास से ! इसके रचयिता से ! या इसे सुनाने वाले जोशी अंकल से !

हाड़ी रानी के शहर से बुलावा -दिनांक २५ सितम्बर ........................................................................................................

जब विमला जी ने बताया कि सलुम्बर की धरती पर काव्य संध्या होने जा रही है और उसमें हमारा सहयोग अपेक्षित है तो बस न जाने कितनी रीलें घूम गयीं ! जिस धरती की कथा सुनी थी, आज उसे देखने का सौभाग्य भी मिलने वाला था ! वाह! किस्मत !

२४ की रात तक ये तय नहीं हो पाया था कि हम जा रहे हैं या नहीं. हमें कई दिनों से बुखार था . हालत कभी ठीक रहती किसी दिन अधिक खराब . डरते-डरते मनोज से सलुम्बर चलने का प्रस्ताव और विमला जी के card को सामने रखा . विमला जी से फ़ोन पर हुई बातचीत का भी हवाला दिया , पर मनोज ने जो उदासीनता दिखाई उससे हम सहम गए और मन ही मन सोच लिया कि अब और पूछना ठीक नहीं . २४ की रात , करीब ९ बजे अचानक मनोज ने घोषणा की कि हम अपना व उनका सामान तैयार करें .. सब एकदम आकस्मिक हुआ l बुलबुल (हमारी बिटिया ) का कहना था " ममा, आपकी बच्चों जैसी सूरत देखकर पापा मान गए हैं ; फर्क सिर्फ इतना है कि आपको हमारी तरह मचलना नहीं पड़ा क्योंकि एक मचलना तो आपके चेहरे पर वैसे ही आ गया था जब पापा मना कर रहे थे .. उसे देखकर तो मन हुआ कि पापा से कहें कि आप माँ को ले जा रहे हैं .. और शायद वही भाव देखकर पापा ले जाने को तैयार हुए I " बेटी की बात सुनकर हम आरक्त हो उठे l बुलबुल की अर्धवार्षिक परीक्षा चल रही है . घर में बीमार माँ भी हैं ; ऐसे में हमारा जाना अपराधबोध दे रहा था किन्तु बुलबुल ने स्वयं हमारी तैयारी की और ये भी आश्वासन दिलाया कि वह दीदी (हमारी भांजी , जो हमारे पास पढ़ रही है ) के साथ ठीक से पढ़ाई कर लेगी और दादी को अपने हाथ से खाना भी खिला देगी I फिर एक ही दिन की तो बात है l बुलबुल ने ठीक से दवाइयां खाने की हिदायत भी साथ में दी I

२५ की सुबह हम और मनोज कार से निकल पड़े . हिम्मतनगर के आगे से , श्यामला जी (प्रसिद्ध मंदिर ) से अरावली की उपत्यकाएं दीखने लगती हैं. वर्षा के आधिक्य से इस बार ये पहाड़ियां हरी चुनरिया ओढ़े नज़र आयीं I रास्ता बहुत खूबसूरत है I हाईवे पर ड्राइव करने का मज़ा भी कुछ और है. मनोज को रोकना पड़ता है ... गति का ध्यान रखिये ... अब टर्न है ... प्लीज़, स्पीड कंट्रोल ... पर ये भी अच्छा है कि इतनी रोक-टोक के बाद भी ये चिढ़ते नहीं ! खैर , ऋषभदेव के आगे एक बाइफरकेशन था , वहीँ से स्टेट रोड हमें पकड़नी थी ..जो सीधे सलुम्बर पहुँचती है I उदयपुर के दक्षिणपूर्व में बसी ये तहसील अपने इतिहास के कारण नाम स्थान पा चुकी है l हम दोपहर, करीब १ बजे सलुम्बर पहुंचे l थकान थी और बुखार भी तेज़ लग रहा था , पर हमने मनोज से ये बात छिपा ही ली I यहाँ पहुंचकर एक बात और जो मन को छू गयी वह ये थी - यूँ तो सभी के ठहरने की व्यवस्था एक साफ़-सुथरे होटल में की गयी थी किन्तु हमारे गिरते स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर हमें डाकबंगले में रुकाने की व्यवस्था दुतरफी होगी .. इसका भान न था I पापा और विमला जी दोनों ने ही हमारे ठहरने का प्रबंध यहाँ करा रखा था और एक पत्रकार (युवा लड़का ) पुरोहित लगभग हर पल हमारी सुविधा का ध्यान रख रहा था. विमला जी ने खिचड़ी विशेष रूप से इस व्यस्तता के बाद भी अपने घर पर बनवाई I इस आतिथ्य को कोई भुला सकता है भला ! हाड़ी रानी के इतिहास से रंगी ये भूमि मन को किस कदर छू रही थी ... ! रात को "सलिला" की काव्य संध्या थी I हम सभी अतिथि नगर पालिका के प्रांगण में एकत्रित थे I करीब साठ कवि तो रहे होंगे , इसके अतरिक्त परिवार जन भी थे I यहाँ परम्परिक ढंग से स्वागत किया गया I प्रांगण में ढोल बज रहा था . फिर सभी को माल्यार्पण करते हुए तिलक और नारियल दिया गया I मनोज और हम दोनों सहसा एक बात पर एक साथ मुसकराए - २७ दिसंबर ,१९८८ के दिन जयमाल के बाद आज दोनों फिर हार पहने हुए थे ! एकसाथ ! सलज्ज -सा हास ! इन रस्मों के बाद सारे कारवाँ को शहर से होकर गुज़ारना था I कार्यक्रम शहर के ऐतिहासिक किले पर था I तहसील की संकरी वीथिकाएँ .. दोनों ओर बनी हवेलियाँ .. हवेलियों से झांकते नक्काशीदार झरोखे और इन झरोखों में स्वागत व उत्सुकता से टिके नन्हे , जवान , बूढ़े चेहरे ! रास्ते में कहीं नगर सेठ ने स्वागत किया तो कहीं जन सामान्य हाथ बांधे खड़ा था I विहंगम था ये दृश्य ! साहित्यकारों के प्रति सम्मान ... हिंदी साहित्यकारों के प्रति ये सम्मान गुदगुदा गया मन को I इन सबके बीच विमला जी की उजली छब भी उभरकर सामने आई I

समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ I मंच पर देश के साहित्यकारों के साथ कविता पाठ करने का पहला अवसर था और फेस करना था जनता जनार्दन को ! कवि सम्मेलनों की जो छब मन में बैठी हुई थी उसके अनुसार हमें हर संभावित के लिए तत्पर रहना था --- कर्म करो , फल की इच्छा नहीं ! पर हमारे सारे डर निर्मूल सिद्ध हुए I बड़े धैर्य से यहाँ की जनता रात एक बजे तक हर तरह की कविता का रस लेती रही ... ! नमन है इस भूमि को ... ! हाड़ी रानी की ये पवित्र स्थली अब हमारे मन में गहरे तक पैठ गयी है I

एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण नहीं है , पर ज़िक्र करना ज़रूरी समझती हूँ I ये बात भी यूँ तो बचपन से अधिक जुड़ी है पर सलुम्बर में फिर घनघना कर बज उठी ... झनझना कर जी उठी ! यहाँ की प्रकृति ... ! राजस्थान .. जो विषमताओं का प्रदेश है वहाँ के धोरों में ऐसा स्वर्ग भी बसता है !

अगले दिन यानी २६ की सुबह एक आवाज़ जिसे कई वर्षों बाद सुना .. हमें जगा देती है ...दिड दिड दू दित ... ओह! चहा चिरई ! तरह-तरह की इन हिन्दुस्तानी चिड़ियों से पापा अकसर रूबरू कराते रहे I बीटल , भैया और हम अलवर शहर में प्रातकाल भ्रमण पर पापा के साथ जाते थे I तीनों ही छोटे थे I एक-एक साल का फर्क है क्रमश : ...I अलवर हरा-भरा शहर है और कई तरह की चिड़ियों को अपनी समझ में देखा और जाना भी यहीं था I बचपन की नाना स्मृतियाँ बड़ी मोहक होती हैं I

तो आज इस चहा चिरई ने हमें फिर से सात साल का बना दिया ! हूँ ... अब थोड़ी देर यहीं रुकने का मन है ! अलविदा !

अपर्णा

Views: 1205

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Aparna Bhatnagar on September 29, 2010 at 7:02pm
मनोज हमेशा समर्थन देते हैं इसलिए लेखन की स्याही उनसे तरबतर ही चलती है . तेल कूपों में डूबने में जितनी आसानी मनोज को लगती है उतनी ही न तैराकी की हालत साहित्य के सागर में उतरने पर होती है .. अतः मनोज का बाहर से दिया समर्थन कई समर्थनों से भी कहीं मज़बूत है और प्रेरणा स्रोत भी. उनके photographs डालकर OBO परिवार से जोड़ सकती हूँ.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 29, 2010 at 9:11am
आदरणीया अपर्णा जी, एक लेख मे आपने हाड़ी रानी का इतिहास, अपना बचपना, तबियत ठीक न होने के बाद भी साहित्य सम्मेलन मे जाने के लिये बच्चे के सामने पति से उत्सुकता दिखाना, पूरा यात्रा वृतांत और मनोभाव को भी प्रदर्शित करना, मैं सम्मोहित हूँ इस लेख को पढ़कर .....................................................................
मनोज और हम दोनों सहसा एक बात पर एक साथ मुसकराए - २७ दिसंबर ,१९८८ के दिन जयमाल के बाद आज दोनों फिर हार पहने हुए थे ! एकसाथ ! सलज्ज -सा हास !

बहुत खूब , कमाल की लेखन शैली है अपर्णा जी, मैं अभिभूत हू आपके लेखन शैली का, निवेदन है कि आदरनीय मनोज भाई साहब को भी OBO परिवार से जोडिये, हम सब दिल से स्वागत करेंगे |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
5 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
6 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
22 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, इस प्रस्तुति को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक dhanyavaad| "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश भाईजी, आपने इस प्रस्तुति को वास्तव में आवश्यक समय दिया है. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. वैसे आपका गीत भावों से समृद्ध है.…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्र को साकार करते सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"सार छंद +++++++++ धोखेबाज पड़ोसी अपना, राम राम तो कहता।           …"
Saturday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"भारती का लाड़ला है वो भारत रखवाला है ! उत्तुंग हिमालय सा ऊँचा,  उड़ता ध्वज तिरंगा  वीर…"
Friday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"शुक्रिया आदरणीय चेतन जी इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए तीसरे का सानी स्पष्ट करने की कोशिश जारी है ताज में…"
Friday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service