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माही नदी के पानी पर ढाक के पेड़ों की सुनहरी काली छाया , चांदी का वरक लपेटे बहता प्रवाह और किनारे की बजरी पर उगी नरम घास अनारो के कबीलाई मन के संस्कार बन चुके थे. उसका बचपन यहीं रेत में लोट-लोटकर उजला हुआ था. घंटों नदी के पानी में पैर डालकर बैठी रहती.छोटे-छोटे हाथ अंजुरी में पानी समेटते और हवा में कुछ बूंदें यूँ ही उछल जातीं. अनारो उन्हें लपकने की कोशिश करती और जब एक-आध बूंद उसके श्याम मुख पर गिरती तो खनखनाकर ऐसे हंसती कि सारा वातावरण उसकी हंसी से धुल-पुंछ जाता .

आज अनारो माही से कुछ कहने आई है. एक शिकायत ! एक फ़रियाद! "माही ! ओ माही ! कौन आएगा तेरे तीर ! कौन खेलेगा तेरे पानी से ! ऊँह ! ये कुटकुट गिलहरी भी न आएगी . ढाक पर फूल न खिलेगा ! सारे फूल बहा कर ले जाती है न , अब तरसना ! जा रही हूँ सासरे . पीछे अकेली बहती रहना. मेरे हाथों की मेहँदी देखोगी . कैसी लाल हो गयी है. कल मेरी बिदाई है . तुझे याद न आएगी . मैं भी रोने वाली नहीं."

अपनी चुनरी में मुँह ढांप कर रो पड़ी अनारो ... आँखों का काजल बह गया . माथे की टिकली बालों में उलझ गयी और हाथों की चूडियाँ सिसकियों की खनक में चुप हो गयीं. थोड़ी देर बाद सन्नाटा हो गया . माही मंथर गति से बहती रही . अनारो ने अंजुरी भर पानी लिया पर हमेशा की तरह उछाला नहीं . बस ऐसे ही उलट दिया . फिर अपनी गुडिया निकाली और माही में विसर्जित कर दी. तेरह वर्ष की अनारो सयानी हो गयी थी.


फिर कहाँ आई अनारो ! चली गयी. माही को बता तो जाती किस गाँव गयी है ? क्या मोहल्ला है ? कौन टोला है ? गुड़िया दे गयी अपनी ... इन अल्हड़ लहरों से वह भी सँभाल कर न रखी गयी. न जाने कहाँ खो गयी? कोई जलचर ले गया या कहीं तली में पड़ी होगी, माही क्या जाने !


अचानक एक दिन , सुबह-सुबह माही ने सिरहाना छोड़ कर जब करवट ली तो सहसा चौंक गयी . पहचानने की कोशिश की . हाँ , अनारो तो थी . अपनी अनारो . पर क्या हुआ इसे ? इसकी चुनरी कहाँ है ? माथे की टिकली ? आँखों में काजल भी नहीं ? काँप उठी माही .

अनारो पानी के आईने में अपनी बनती- बिगडती सूरत देखती रही . फिर उसने बड़ी कठोरता से लहरों में अपनी उँगलियाँ फंसा दीं और उन्हें अन्दर तक कुरेद दिया . माही सहम गयी. अब अनारो तेरह की नहीं थी .


ओ ओ रे ! निपूती हूँ मैं . ले, तुझे गुड़िया दूँ ! कितनी ! कोख की जनी ! ले ,अभागी ले ! देवो के दिन फिर आउँगी. उसी दिन जनी थी मैंने ! तू ले ले . मेरे पास क्या धरा है? उसने एक-एक कर पांच गुड़ियाँ जल में प्रवाहित कर दीं.

फिर विद्रूप -सा अट्टहास किया , डरावनी हुंकार भरी , गुथें बालों को फैला लिया और खिलखिलाती वहाँ से चली गयी . माही सहम गयी थी .


कोहड़ का सारा कुनबा उसे पगली कहता . बच्चे पत्थर फेंकते , मुँह चिढ़ाते. बड़े-बूढ़े कतरा कर निकल जाते . माही चुप-चाप सब देखती. दिल पसीजता पर किसे क्या कहे ? नदी किनारे खेतु की झोपडी थी . वहीँ आसरा पा गयी थी वह . संसार खाली नहीं हो गया - अच्छे लोग हैं. खेतु की जोरू राधा कैसी भली है. अनारो भूखी नहीं रहती, राधा से बासी -बूसी खाने को जो मिलता है उसे पाकर तृप्त हो जाती है. दिनभर गलियों में भटकती है. आवारा कुत्ते पीछे-पीछे घूमते हैं . रोटी का एक कौर खुद खाती है और जो गिरता है वह भगवद कृपा से इन कूकरों को नसीब हो जाता है. रात में नदी के पानी में पैर डाल कर बैठ जाती है , और अपने झोले में से सूई -धागा , कुछ रेशमी कपडे निकाल लेती है. घंटों कुछ बनाती रहती है. क्या बना रही है? क्यों बना रही है ? माही में साहस नहीं और न ही उत्कंठा है जानने की .


आज देवो है. माही किनारे गाँव उमड़ जाएगा .पुरुष गैर (एक नृत्य ) करेंगे . हाथ में लाठी -तलवार लिए नाचेंगे . ढोल बजेंगे . दीपों से दमक उठेगा गाँव . आज अनारो गली-गली नहीं भटकी . सुबह से नदी में पैर डाले बैठी थी. राधा का बींद खेतु कई बार पुकार चुका था - अन्नो, खाना खा ले . चबूतरे पर धर दिया है. कुत्ते न खा जाएँ . पर अनारो को फुर्सत कहाँ थी . उसके हाथ कुछ बना रहे थे . अलग-अलग अंग ! रेशमी हाथ!रेशमी पैर ! मिट्टी से बना

मुंह ! अनारो ने अपने बालों की लट चाकू से काटी तो माही सिहर उठी ! हाय रे ! सत्यानाशिनी ! अपने बाल काट डाले ! पर अनारो बेखबर थी . उसकी आँखों में ममता थी . अलग -अलग अंग जुड़ने शुरू हुए - धड़, हाथ , फिर पैर और अंत में बालों की वह उलझी लट. माही हैरत में थी .


रात हुई . दीप जलने लगे . झींगुर गैर के शोर से झाड़ियों में जा छिपे . खूब नाच हुआ . खजूर की शराब- खूब उबाल-उबाल कर पकाई हुई , ज़मीज़ में दबा कर सडाई हुई -पी- पीकर जवान झूम उठे . बूढ़े हसरत से देख रहे थे. औरतें घूँघट से झाँक-झाँक मिली स्वाधीनता का आनंद उठा रहीं थीं . वहां यदि कोई न था तो वह था खेतु , उसकी जोरू और अन्नो .


राधा प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी , खेतु पास के गाँव से धाय को लाने चला गया था . कौन था उसका ,राधा के सिवाय ! गाँव का आवारा था . राधा मणि की इकलौती बेटी थी , जो शादी के एक बरस बाद ही विधवा हो गयी. गाँव में जब आई तो मणि के आलावा कौन सहारा था . दोनों बेवा साथ रहतीं . खेतु को राधा बड़ी भली लगती ,पर कहने की हिम्मत न जुटा पाता. एक दिन मणि ने उसे बुलाया और राधा का हाथ उसके हाथ में थमा दिया . उस दिन से खेतु की जिन्दगी बदल गयी. मणि ये पुण्य कमाकर दुनिया से चली गयी . बेवा को इस काम के लिए नेकनामी नहीं मिली . गाँव की औरतों ने जी भरकर कोसा . राधा को छिनाल की उपाधि मिली . बूढों न उसे डायन कहा . पर राधा ने बुरा नहीं माना. दोनों का कोई न था . अन्नो पता नहीं कैसे जुड़ गयी . पर पगली क्या जानती कि उसकी जीवन दात्री प्रसव पीड़ा से तड़प रही है. वह चबूतरे पर बैठी आसमान देखती रही . खेतु जाते -जाते अन्नो से कह गया था - "ध्यान रखियो, मैं अभी गया और आया ." राधा तड़प-तड़प कर कभी खेतु तो कभी अन्नो को आवाज़ लगाती .अन्नो उसकी चीख सुनकर कमरे में झाँक आती और फिर दालान में पालथी मारकर बैठ जाती .


जब खेतु लौटा तो बाहर जमा भीड़ को देख घबरा गया . चबूतरे पर अन्नो पड़ी थी . दर्द से चीख रही थी . सारा गाँव आँखें फाड़े देख रहा था . "हाय , तू कहाँ है लाडो ! यहीं तो जाना था तुझे . इसी देवो को . कितनी बार जना तुझे .पांच बार . पर उसे तू न भायी . कैसे लकड़ी लेकर भागा था ! बेशरम ! कहता था - अरी तेरी कोख में डायन पलती हैं. लड़के को तरस गया . अरे इससे तो तू निपूती भली ! इन डायनो का पेट कौन भरेगा ?" "तू क्या भरेगा पेट ? ईंटें मैं पकाती हूँ . भट्टी पर मैं बैठती हूँ , तेरी दाल -रोटी कौन बनता है? तू तो ताड़ी पीकर पड़ा रहता है . आग लगे तुझे . मुँह झौंस दूंगी , जो इसबार डायन कहा तूने."


अन्दर धाय राधा को सँभाल रही थी , बाहर गाँव आवाक खड़ा देख रहा था. अनारो को रोकने की हिम्मत किसी में न थी . वह नदी की ओर भागी , हुजूम भी उसके पीछे भागा. आँखों में वहशत , फैले बाल - अनारो दौड़ती जा रही थी, चीखती जा रही थी . माही ने उसकी ओर देखा तो अनारो चुप हो गयी . सब चुप थे. अँधेरे में रह-रहकर राधा की चीख सुनाई देती थी . अचानक अनारो खिलखिलाई . उसने एक सुन्दर गुड़िया झोले से निकाली . उसे चूमा . छाती से लगाया . फिर ठठाकर हंस पड़ी . दीयों की मद्धिम रोशनी नदी की लहरों पर झूल रही थी - ऊपर -नीचे . माही विस्फारित नेत्रों से देख रही थी - खामोश ! तभी धप्प की आवाज़ हुई ओर गुड़िया लहरों पर हिचकोले खाती आगे तैर गयी. अन्नो रोई -"ले जा माही . मेरे जिए के टुकड़े को . ले जा . हाय , मैंने अपने हाथों से मार दिया . बलवे में वे बल्लम लेकर आये थे . न जाने कौन थे ? उसे क्या पड़ी थी ? ताड़ी पीकर पड़ा था. सारा गाँव भूंज डाला उन्होंने . मेरी भट्टी की आग में झोंक गए - उसे भी और मेरी चार लाडलियों को . मैं प्रसव से तड़प रही थी . कुछ न कर पायी. जब होश आया तो बगल में लाडो पड़ी थी , सूखे स्तनों से चिपकी . रोई नहीं वह .निश्चेष्ट पड़ी थी . मर गयी थी मेरा कडवा दूध पीकर. मैंने उसे भट्टी में डाल दिया . मर जो गयी थी ! हाय पर भट्टी में गिर कर रोई क्यों वह ? वह तो मरी पैदा हुई थी न , बोल माही बोल ! मैं निपूती रह गयी , माही ! आज तू बहा कर ले गयी मेरे कलेजे को ! माही सुन रही थी !


दिए जल रहे थे . "अन्नो , आ तो . देख बेटी जन्मी है राधा को . " अन्नो चबूतरे पर बैठ गयी . झोले से सामान निकाला और अलग-अलग अंगों को बनाने बैठ गयी. दिए जल रहे थे . लाडो के रोने की आवाज़ आ रही थी और बाहर छल -छलकर माही बह रही थी !



अपर्णा

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Comment by Aparna Bhatnagar on October 3, 2010 at 10:03pm
pooja ji, aabhar!
Comment by Pooja Singh on October 3, 2010 at 9:02pm
अर्पणा जी ,
नमस्कार क्या कहू मैं आपकी इस कहानी का शब्द नही मिल रहे है , क्योकि आपकी हर कहानी में कुछ न कुछ नया जरुर होता है , परिवेश , भाषा शैली कथानक को प्रस्तुत करने का ढंग अद्वितीय है , एक बार पढने लगे तो जबतक कहानी पूरी न हो जाय आगे जानने की उत्सुकता रहती है | उम्मीद है की आप आगे भी ऐसी ही कहानिया प्रस्तुत करेगी | बढिया कहानी लिखने के लिए आपको धन्यवाद |
Comment by Aparna Bhatnagar on October 3, 2010 at 8:27pm
Ganesh ji, aapke aagrah par laghu katha likhne ka prayaas bhi karenge. Yadyapi kahani likhna kam hi hota hai. kaafi jujhna padta hai.. patron se kai baaten karni padti hain ... isliye aksar kavita par hi lekhni ruk jaati hai.
aabhar!
Comment by Aparna Bhatnagar on October 3, 2010 at 8:25pm
Thanks! @Tiwari ji... aapko kahani pasand aayi. Dhanywad!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 2, 2010 at 3:58pm
वोह यह कहानी पढ़ने के बाद कुछ देर तक निस्तब्ध सा हो गया, एक साधारण सा कथानक को लेकर लिखी गई कहानी आपके भाषा शैली के कारण बहुत ही खुबसूरत बन गई है, अनुरोध है की लघु कथा भी कुछ प्रस्तुत करे |
Comment by आशीष यादव on October 2, 2010 at 6:16am
Waah Aparna ji. Hriday ke taro ko jhankrit kar ke aapki yah kawita ek adwitiya dhun nikal gayi. Hr ek shabd se jod kr chala rhi thi mujhe jb mai iske sath chal rha tha. Bilkul riju shabdo me gadya jawita ko, wo bhi itni badi, mahi ki dhara k saman prawahshil bnaye rakhna bahut badi baat thi. Aap ne kiya. Bahut sundar.

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