१.
वह जब आती मन को भाती,
सबके जीवन को हर्षाती ,
कभी कभी देती है तरसा,
क्यों सखा सजनी, ना 'बरसा'.
२.
वो जब आती मैं सो जाता ,
गहरे सपनों में खो जाता ,
उस संग हो जाता 'रिंद'
क्यों सखा सजनी, ना नींद
३.
सुरूर उसका जब छाता है .
रोम रोम सा खिल जाता है.
उसके आगे सब खराब .
क्यों सखा सजनी,ना शराब.
Comment
रेखा जोशी जी प्रोत्साहन के लिए आपका शुक्रिया .
सीमा जी अपनी प्रतिक्रियाएं देने के लिए धन्यवाद. जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसमें अपार सुधर की संभावनाएं होती है. मैं कोशिश करूंगा कि आगे यह प्रयोग लेखन की कसौटियों पर खरा उतरें .
आपका प्रयोग सफल रहा नवल जी ,बढ़िया कह मुकरिया ,हार्दिक बधाई
कभी कभी देती है तरसा,
क्यों सखा सजनी, ना 'बरसा'........ये कुछ जबरदस्ती का बनाया हुआ तुक है या प्रयोग
उस संग हो जाता 'रिंद'
क्यों सखा सजनी, ना नींद.....रिंद और नींद का भी तुक कुछ समझ नहीं आया
उसके आगे सब खराब .
क्यों सखा सजनी,ना शराब.......यहाँ मात्राओं की गडबड दिख रही है
नवल प्रयोग के चक्कर में आपने शिल्प को बिलकुल ही नज़रंदाज़ कर दिया नवल जी
बहुत बहुत शुक्रिया आपका ! मुकरियों में अब तक सखी की सखी से साजन के बारे में ही बात होती थी . यहाँ सखा अपने सखा से सजनी के बारे में बात कर रहे है .यह है नव प्रयोग है सर.
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