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छुटपन में
हर रोज़ बाबा का हाथ थामे निकल जाता था मैं,
सुबह की सैर को |
रास्ते की हर ठोकरों से बेख़ौफ़ लड़ता,
अकड़ता,
बढ़ता जाता था मैं |
क्यों कि जानता था,
कि कोई भी पत्थर कोई भी ठोकर मुझे गिरा न पाएगी |
क्यों कि दुनिया का सबसे मज़बूत सहारा थाम रखा है मैंने....
पर
कल सीढियां चढ़ते वक़्त
बाबा लड़खड़ा गये...और थाम लिया हाथ मेरा!
और मैं रह गया,
अतीत और वर्तमान के बीच का
सारांश ढूंढता हुआ.....
 
-पुष्यमित्र उपाध्याय
.

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Comment by Pushyamitra Upadhyay on August 30, 2012 at 8:53pm

ashok sir.....bahdaai hetu saadar dhanyavaad........pranam sweekar karein....

Comment by Ashok Kumar Raktale on August 30, 2012 at 8:03pm

वक्त के साथ आते बदलाव पर सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें आ. उपाध्याय जी.

कृपया ध्यान दे...

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