इस रहम इस वफ़ा की जरुरत नहीं
अब किसी रहनुमा की जरुरत नहीं
खुद मिलें ना मिलें अब मुझे रास्ते
मुझको तेरी दुआ की जरुरत नहीं
दो कदम चल के जाने कहाँ खो गया
दिल को उस गुमशुदा की जरुरत नहीं
कोई उसको भी जाके बता दे जरा
मुझको उस बेवफा की जरुरत नहीं
मेरे दामन में अब दाग ही दाग हैं
अब किसी बेख़ता की जरुरत नहीं
-पुष्यमित्र
Added by Pushyamitra Upadhyay on March 28, 2013 at 8:49pm — 4 Comments
गीत रूठे हुए मीत छूटे हुए
फिर भी रस्में ये सारी निभा जाऊँगा
ये अलग बात है रंग मुझमें नहीं
फिर भी फागुन तुम्हें मैं दिखा जाऊँगा
आप सो जाइये ओढ़ कर बदरियाँ
मुझको इस धूप में और जलना अभी
लक्ष्य संसार के हों समर्पित तुम्हें
मुझको इक उम्रभर और चलना अभी
मन के मंदिर में बस तुम ही तुम देव हो
प्रीत के कुछ सुमन फिर चढ़ा जाऊँगा
ये अलग बात है रंग मुझमें नहीं
फिर भी फागुन तुम्हें मैं दिखा जाऊँगा
रंग यौवन के जब सब उतरने लगें
फूल जब…
Added by Pushyamitra Upadhyay on March 26, 2013 at 9:00pm — 4 Comments
Added by Pushyamitra Upadhyay on March 9, 2013 at 6:41pm — 6 Comments
हर राह पर तेरी रजा
तू ही सनम तू ही खुदा
तो क्यों ही तेरे फैसलों पे
धूल सी जमी रही
बोल क्या कमी रही
क्यों ही तेरे दिल में वो, गैर ही बसा रहा,
क्यों लचकती बांह में गुल वही कसा रहा|
मैं भी तो पलाश बन बिछा था तेरी राह में,
मैं भी तो बहार सब लुटा रहा था चाह में|
क्यों दुआ में जागती
फिर आँख में नमी रही
बोल क्या कमी रही?
कैसे तेरे दिल से मैं नाम उसका खींच लूं,
या कि अपनी चाहतों के मैं गले ही भींच दूं|
तू देख मेरे हाथ…
Added by Pushyamitra Upadhyay on February 22, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
पत्थर दिलों के पिघलने तो दो
ज़रा होश अपने संभलने तो दो
सारा चमन तो जलाया है तुमने
कोई फूल अब थोडा खिलने तो दो
हर शाख पर अब तो उल्लू है बैठा
कहीं इन परिंदों को मिलने तो दो
अंधेरों से डरते सभी हैं यहाँ पर
जरा तुम ये सूरज निकलने तो दो
ये आँखें ही कल की हकीकत रचेंगी
मगर आज ख्वाबों को पलने तो दो
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on February 14, 2013 at 6:50pm — 7 Comments
पथ मेरे ये अंधेरों में घिरने लगे…
ContinueAdded by Pushyamitra Upadhyay on February 13, 2013 at 12:30am — 13 Comments
छोडो मेहँदी खडक संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे
कब तक आस लगाओगी तुम,
बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो
दुशासन दरबारों से|
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयंगे
कल तक केवल अँधा राजा,
अब गूंगा बहरा भी है
होठ सी दिए हैं जनता के,
कानों पर पहरा भी है
तुम ही…
ContinueAdded by Pushyamitra Upadhyay on December 28, 2012 at 4:59pm — 12 Comments
गर सब धुँआ है तो धुआँ रहने दो
अब जो जहां है उसे वहां रहने दो
सभी रिश्ते सुलझ जाएँ तो मजा कैसा
कुछ उलझनें भी तो दरम्याँ रहने दो
हर डगर फूल बिछाए नहीं मिलती
जलजलों में भी ये कारवां रहने दो
रहने वाला ही जब खो गया है कहीं
लापता फिर ये भी आशियाँ रहने दो
ये भी क्या कि तुम ही हर जगह रहोगे
कहीं तो जमीन ओ आसमाँ रहने दो
सहमे लफ़्ज़ों से रिश्ते संभलते कहाँ हैं
हमतुम में अब ये खामोशियाँ रहने दो
-पुष्यमित्र…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 18, 2012 at 12:07am — 2 Comments
और कितनी है जुदाई पता तो चले
वो मेरी है या पराई, पता तो चले
यूं बहारों पे कब्ज़ा यूं फिजाओं पे हुक्म
अदा ये किसने सिखाई पता तो चले
कँवल खिलने लगे अब्र जलने लगे
किसने ले ली अंगडाई पता तो चले
ये किसने छुआ है, ये किसका नशा है
ये कली क्यों बलखाई पता तो चले
चाँद खिलने लगा गुल महक से गये
मेहँदी किसने रचाई पता तो चले
खोलकर आज गेसू वो मुस्कुरा गये
मौत किसपे है आई पता तो चले
गनीमत यही उन्हें मुहब्बत तो हुई
कुछ उन्हें भी…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 12, 2012 at 2:21pm — 10 Comments
फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते
हम भी अब अपने यारों में नहीं रहते
मुहब्बत है गर तो आज ही कह दो मुझसे
ये फैसले यूं उधारों में नहीं रहते
अब जानी है हमने दुनिया की हकीकत
अब हम आपके खुमारों में नहीं रहते
दिल तोड़ दो बेफिक्र कोई कुछ न कहेगा
ये छोटे से किस्से अखबारों में नहीं रहते
मेरा रकीब भी आज मेरी खिलाफत में है
लोग हमेशा तो किरदारों में नहीं रहते
बस वजूद की ही जंग है महफिलों में बाकी
वो तूफ़ान भी अब आशारों में नही…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 11, 2012 at 7:38pm — 18 Comments
उस साल
कहर सी थी सर्दी
ठिठुरन बढ़ रही थी
हमने जेहन में खड़े कुछ दरख्त काटे
और जला लिए कागज़ पर
ज्यादा तो नहीं मगर हाँ....
थोड़ी तो राहत मिल ही गयी
पास से गुजरते हुए लोग भी
तापने के लिए बैठने लगे
अलाव धीरे धीरे... महफ़िल सा बन गया
अलाव जब बुझ गया ..लोग चले गये
फिर तो
रोज़ ही हम कुछ दरख्त काट लाते
रोज़ अलाव जलता रोज़ ही लोग आते
इस तरह हर रोज़ महफ़िल सजने लगी
मगर एक ताज्जुब ये था कि
रोज़ ही काटे जाने पर भी
दरख्त कभी कम नहीं होते…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 10, 2012 at 9:52pm — 3 Comments
अब तुम पर यकीं कर पायें किस तरह
हम और अब तुम्हे आजमायें किस तरह
ये ख़याल उनको सताता ही रहा
वो मुझको सताएं तो सताएं किस तरह
ये कत्ल हुआ जाने या जाने वो कातिल
क़त्ल करने लगीं ये निगाहें किस तरह
वक़्त के हरेक टुकड़े में खोया तुम्हें
वो गुजरा हुआ वक़्त लायें किस तरह
वो जो हंसकर मिलें बात कुछ तो बढे
अब बुतों से भला बतलाएं किस तरह
वो पूछते हैं फिर रहे तरीके प्यार के
मैं पूछता फिरा तुम्हे भुलाएं किस तरह
बस तेरी है तमन्ना एक…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 6, 2012 at 9:22pm — 2 Comments
न किसी खाप न किसी मौलवी से होगा
हमारे इश्क का फैसला तो हमीं से होगा
ये कह कर ठुकरा गया वो आसमाँ मुझे
हमारा वास्ता ही क्या तेरी जमीं से होगा
यूं दुआ को न तरस, यूं दवा को न ढूंढ
ज़ख्म इश्क ने दिया, ठीक शायरी से होगा
बेफिकर घूमता है, इश्क से अनछुआ
मुखातिब वो भी तो कभी दिल्लगी से होगा
यूं भी जिन्दगी किसी से बेताल्लुक नहीं होती
तेरा मिलना ही जरुर बुजदिली से होगा
मेरी ग़ुरबत पे कर कुछ निगाह कुछ करम
ये अंधेरों का मसला हल रौशनी से…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 5, 2012 at 7:06pm — 5 Comments
चाँद को भी हम कब तलक देखें
न देखें तुम्हे तो क्या फलक देखें
खुद चला आया जो आफताब आँखों में
फिर क्या किसी शम्मा की झलक देखें
आने का यकीं दे चले थे मुस्कुरा के वो
कुछ और हम ये तनहा सड़क देखें
वो न देखें मेरे ये लडखडाये से कदम
देखना है तो मेरी आँखों में चमक देखें
क्या देखते हैं आप यूं काफियों को घूर कर
मिल जाए जो जहां बस सबक देखें
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 10:36pm — 7 Comments
आखिरकार कसाब मारा गया! एक लम्बा चला आ रहा विरोध और इंतज़ार ख़त्म हुआ! इस मृत्यु से उन सभी शहीदों जिन्होंने कि देशरक्षा के लिए अपने प्राण निस्वार्थ अर्पण कर दिए के परिजनों को मानसिक शांति तो मिली होगी किन्तु उन्होंने जो खोया उसकी भरपाई नहीं हो सकती|
कसाब को मारना सिर्फ एक कदम था निष्क्रियता से उबरने के लिए, हालांकि ये बहुत जरुरी भी था| मगर सवाल ये उठता है कि क्या कसाब को मार देना ही उन शहीदों के लिए श्रृद्धांजलि होगी? क्या कसाब ही अंतिम समस्या थी? शायद नहीं! कसाब उस समस्या का सौंवा हिस्सा…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 26, 2012 at 4:49pm — 1 Comment
वो नज़र नज़र भर क्या देखें
वो रुका समंदर क्या देखें
जो पत्थर जैसा मिला सदा
दिल उसके अन्दर क्या देखें
कोई उनके जैसा बना नहीं
हम तुम्हें पलटकर क्या देखें
हमने तो हंस के छोड़ा सोना
ये कौड़ी चिल्लर क्या देखें
वो चाँद बुझा कर जा सोये
हम तारे गिनकर क्या देखें
टूट गये गुल गईं बहारें
अब उजड़ा मंज़र क्या देखें
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 21, 2012 at 10:09pm — 3 Comments
कुछ और शाम इंतज़ार सही
कुछ और दिल बेकरार सही
कुछ और रखी जिन्दगी दांव पे
कुछ और तेरा ऐतबार सही
कुछ और गम के समंदर पालूँ
कुछ और काज़ल की धार सही
कुछ और चले ये रात अँधेरी
कुछ और सर्द अंगार सही
कुछ और चाँद की ख्वाहिश मेरी
कुछ और तेरा ये प्यार सही
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 20, 2012 at 8:56pm — 3 Comments
फूल ही सही मगर ख़ारों में ज़िन्दा हूँ
मय बनकर ही तलबदारों में ज़िंदा हूँ
मैं इश्क हूँ मुझे आशारों में न ढूंढ
मैं तेरी आँख के इशारों में ज़िन्दा हूँ
मुझे आसमाँ की आज़ादी मिली न कहीं
मैं तेरी याद के इज्तिरारों में ज़िन्दा हूँ
न दे गवाही मुझे इनकारों की तमाम
मैं तेरे खामोश इकरारों में ज़िंदा हूँ
ये माना कि किश्ती है जलजलों में अभी
मैं मगर उम्मीद के किनारों में ज़िन्दा हूँ
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 19, 2012 at 9:35pm — No Comments
यूं तो हमारे देश में कई क्रांतिकारी कई देशभक्त आये| कोई नोटों तक पहुंचा कोई गुमनामी में खो गया, किसी को चर्चे मिले कोई किताबों में सो गया| मगर उन्होंने अपना कर्तव्य कभी नहीं छोड़ा, आजादी के बाद भी अनेक क्रांतिकारी यदा-कदा देश में आते-जाते रहे| जब-जब शासन अपनी शक्तियों और कर्तव्य को भुला कर कुछ भी करने में अक्षम रहा, वे देशभक्त उन्हें कर्तव्य बोध कराते रहे|
ऐसा ही कर्तव्य बोध हाल ही में हमारे देश के एक वीर क्रांतिकारी द्वारा सरकार को कराया गया| ये वीर कोई और नही बल्कि परम साहसी, अत्यंत…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 9, 2012 at 4:10pm — 7 Comments
रो रोकर हार गया काजल
हार गये बिछुए कंगना
समझा दो तुम ही तुम बिन
अब कैसे जिएगा ये अंगना
कैसे आयें प्राण कहो अब नथ,बिंदियाँ और लाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
सब देखें छत चढ़ चढ़ चन्दा,
पर मेरा चन्दा रूठ गया
दिल का बसने वाला था जो
कितना पीछे छूट गया
कैसे रंग रहे होली में कैसी चमक दिवाली में
कैसे धर लूं धीर पिया मैं इन आँखों की प्याली में
जनम जनम की कसमें सारी
इक क्षण में ही तोड़ चले
तुम क्या जानो अंखियों से…
Added by Pushyamitra Upadhyay on November 4, 2012 at 9:44pm — 5 Comments
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