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नए ख्वाब खुद को दिखाने लगे हैं

 

नए ख्वाब खुद को दिखाने लगे हैं

वो उनमें भी तशरीफ़ लाने लगे हैं

 

समंदर किनारे ठहरने को थोडा

लहरों को कितना मनाने लगे हैं

 

वही बात तुमसे जो कहनी थी छुपकर 

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं

 

हैं करते खुशामद सितारों की अब तो

हर इक दर पे सर को झुकाने लगे हैं

 

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो

तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

 

-पुष्यमित्र

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on March 13, 2013 at 1:35am

बहुत खूब

Comment by Pushyamitra Upadhyay on March 13, 2013 at 12:09am

आदरणीय सौरभ सर आपने जो संशोधन बतलाये हैं उनमें मुझे पूर्व से ही संशय था मगर जैसा कि आपने कहा मायने बदल जायेंगे तो इसीलिए मैं दूसरा उपर्युक्त  हल ढूंढ़ नहीं पाया किन्तु आपने मेरी दुविधा हल कर दी...आपके मार्गदर्शन अक कोटिशः आभारी हूँ| आगे भी आपके मार्ग्धार्शन की कामना करता हूँ, अनुज का प्रणाम स्वीकार कीजिये|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 11, 2013 at 10:53pm

भाई पुष्यमित्र जी,  इस ग़ज़ल को हमसब से साझा करने के लिए तो पहले बधाई.

इस ग़ज़ल को पढ़ते समय जो मुझे महसूस हो रहा था वो यही था कि या तो ग़ज़लकार ग़ज़ल की बह्र को अपने हिसाब से जानता-समझता है या मैं ही प्रयुक्त हुई बह्र के वज़्न को नहीं समझ पा रहा हूँ.

फिर ध्यान से देखा तो इस ग़ज़ल की बह्र मुतकारिब मुसम्मन सालिम, वज्न: १२२, १२२, १२२, १२२,  है.

इस लिहाज से आपकी इस ग़ज़ल के कुछ मिसरे थोड़ा और ध्यान चाहते हैं.  जैसे -

लहरों को कितना मनाने लगे हैंयहाँ लहरों को ’किनारों’ कर दिया जाय या ऐसा ही कुछ तो समस्या ख़त्म. यानि,  किनारों को कितना मनाने लगे हैं .. .

मगर आगे, ये तो आपको बेहतर मालूम होगा कि मिसरे की कहन में इस तब्दीली का क्या प्रभाव पड़ेगा.

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं  = इस मिसरे में भी महफ़िल में  को बदल कर ’भरी बज़्म’ कर दिया जाय समस्या ख़त्म.  यानि, भरी बज़्म गाकर सुनाने लगे हैं ..   या ऐसा ही कुछ

अब ग़ज़ल पर -

कहना न होगा कि इस ग़ज़ल के शेर अत्यंत भावुक हृदय से निकले हैं.

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो
तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

उपरोक्त शेर के लिए विशेष दाद दे रहा हूँ.. .

Comment by Yogi Saraswat on March 11, 2013 at 11:39am

वही बात तुमसे जो कहनी थी छुपकर 

महफ़िल में गाकर सुनाने लगे हैं

 

हैं करते खुशामद सितारों की अब तो

हर इक दर पे सर को झुकाने लगे हैं

 

भुला दे खिलौने दुपहरी के अब तो

तुझे सांझ लोरी सुनाने लगे हैं

 sundar shabd

Comment by asha pandey ojha on March 9, 2013 at 9:13pm

bahut hi badhiya ..

Comment by ram shiromani pathak on March 9, 2013 at 7:16pm

bahot khoob.........bhai g

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