जैसे
ठहरा हुआ समंदर कोई
गहरे नीले रंग से रंगा...ऐसा आसमाँ
दूर दूर तक फैला हुआ...
जिसके किसी छोर पर
तुम हो...
किसी छोर पर मैं हूँ
और
हम दोनों के बीच
ये तैरता हुआ सफ़ेद मोती....
सब कुछ वैसा ही है/ कुछ नहीं बदला
बस बदल गयीं हैं,
इस समंदर से अपनी शिकायतें |
पहले ये बहुत छोटा लगता था हमें,
और अब ये समन्दर ख़त्म ही नहीं होता
....मीलों तक......
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Comment
saurabh sir, rajesh didi, yogyata ji
आप सभी का आशीष पाकर अभिभूत हूँ, अपने विचारों को बस उकेरा भर था OBO के आँगन में मैंने...आपके आशीष ने उसे धन्य कर दिया...अनुज का प्रणाम स्वीकार कीजिये.....
owsm...!!!!
सब कुछ वैसा ही है/ कुछ नहीं बदला
बस बदल गयीं हैं,
इस समंदर से अपनी शिकायतें |
पहले ये बहुत छोटा लगता था हमें,
और अब ये समन्दर ख़त्म ही नहीं होता
....मीलों तक......परिस्थतियों का गुलाम है वक़्त हालात बदलते रहते हैं ---बहुत बेहतरीन रचना
भाई पुष्यमित्र जी, आसमान, उसकी निरभ्रता और मोती का संकेत भोगती हम-तुम की सनातन इकाई. वाह ! क्या ही सुन्दर रचना बन पड़ी है ! बधाई हो !!
सब कुछ वैसा ही है / कुछ नहीं बदला
बस बदल गयीं हैं,
इस समंदर से अपनी शिकायतें |
पहले ये बहुत छोटा लगता था हमें,
और अब ये समन्दर ख़त्म ही नहीं होता
....मीलों तक......
वाह !
समय के साथ लगातार जटिल होती जा रही परस्पर भावनात्मक निर्भरता के एक अवगुंठित आयाम को मुलामियत से उघारती इस भाव-रचना पर हृदय से बधाई स्वीकार करें.
निरंतर लिखते रहें, भाई. हार्दिक शुभकामनाएँ.
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