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एक ख्वाहिश जलने की

कभी चिराग बनकर जला
कभी आग बनकर जला
जली हो चाहे किसी की भी खुशियाँ 
लेकिन मैं ही दाग बनकर जला...01
.
सुलग-२ जल रहा जिस्म ये मेरा..
तपते आशियाने ही रहा अब मेरा डेरा..
कभी किसी ने तरस खाकर छोड़ा,
तो कभी किसी के लिए हिसाब बनकर जला....02
.
धोका देकर मुझे मिटती गई मेरी ही हस्ती..
आरजू ही की थी की, जल गई मेरी बस्ती
तो कभी उन बस्तियों के साथ में,
तो कभी उनकी खाक बनकर जला....03
.
हौसला रखे हम, तिल-२ मिटते गए..
अरमान ख्वाहिशें हर पल जलते गए..
तो कभी किसी की शौक के लिए,
तो कभी उसका इलज़ाम बनकर जला..04

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Comment

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Comment by Yogyata Mishra on September 2, 2012 at 11:44pm

amazing...!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 2, 2012 at 7:44pm

प्रदीप जी, आपकी कुछ रचनाएँ अबतक इस मंच पर आ चुकी हैं. आपमें अंतर्निहित संभावनाएँ हैं.

किन्तु, आपकी संभावनाओं को मात्र आवश्यक स्वाध्याय ही नहीं, बल्कि, अनुभवी तथा सक्षम उंगलियों द्वारा आवश्यक दिशा-निर्देशन की आवश्यकता है. आप इस मंच पर पोस्ट हुई अन्यान्य रचनाकारों की समृद्ध रचनाएँ तो पढ़ें ही, साथ चल रही कई-कई कक्षाओं में भी उपस्थित हों.

रचना-कर्म के प्रति आपके उत्साह और आपकी भाव-दशा का हम सम्मान करते हैं.

शुभेच्छाएँ

कृपया ध्यान दे...

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