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मैं चाँद सा सुंदर हुआ नहीं....

मेरे कमरे की खिड़की से खुला आकाश दिखता है,
कल रात ही मैंने ये महसूस किया की,
तारों से भरे काले आकाश में,
एक चाँद हर रोज इंतज़ार मेरा करता है,

लेटे लेटे ही अपने बिस्तर पर,
मैं बातें उससे अक्सर किया करता हूँ,
वो भी रूप बादल हर रोज आता है,
अभी चंद रोज पुरानी ही है मुलाक़ात हमारी,

तब छोटा सा ही तो था, फिर बढ़ते बढ़ते
एक रोज वो पूरा गोल रोटी सा हो गया,
फिर नज़र जैसे किसी की उस चाँद को लगी,
थोड़ा-थोड़ा कर घटने, हर रोज वो लगा,

एक हल्का सा काला टीका उसकी माँ ने,
लगाया तो है उसके भी चेहरे पर,
जैसा मेरी माँ लगती है हर रोज मुझे,
मुझे कभी कोई नज़र नहीं लगती,
उसी छोटे से टीके के कारण तो,
या शायद इस लिए,
की मैं सुंदर नहीं हूँ चाँद सा,

आज बहुत परेशां हूँ मैं,
की रात आधी बीत चुकी है,
और हर रोज का मेरा वो दोस्त,
वो चाँद आज गायब है कहीं,

कल रात भी बहुत कमजोर,
बहुत छोटा सा लग रहा था,
पर आज तो कहीं है ही नहीं,
दुख तो बहुत है मुझे भी,
उसके कहीं खो जाने का,
पर इस बात से मैं खुश भी हूँ,
की मैं चाँद सा सुंदर हुआ नहीं.....

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 19, 2012 at 2:56pm

चाँद की दैनन्दिनी और आपकी कल्पनायें दोनों को युग्मित होने से एक प्यारी कविता अपना आकार ले सकी है, अच्छी रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीय पन्त जी, संभव हो तो प्रोफाइल फोटो अपडेट कर लें |

Comment by Rekha Joshi on September 19, 2012 at 10:52am

अति सुंदर अभिव्यक्ति पियूष जी ,बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2012 at 6:15pm

गहन अभिव्यक्ति सुन्दर प्रस्तुति 

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 16, 2012 at 12:45pm
स्वागतम पीयूष भाई! अनूठी और गूढ़ अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती रचना हेतु बधाई स्वीकार करें!

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