बारिश की धूप
सूरज कर्कश चीखे दम भर
दिन बरसाती
धूल दोपहर.. .।
उमस कोंसती
दोपहरी की
बेबस आँखों का भर आना
आलमिरे की
हर चिट्ठी से
बेसुध हो कर फिर बतियाना.. .
राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।
चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में
कबसे एक
पता बसता है
जाने क्यों
हर आनेवाला
राह बताता-सा लगता है
पलकें राह लिये जीतीं हैं
बढ़ जाता
हर कोई सुनकर ।
गुच्ची-गड्ढे
उथले रिश्ते
आपसदारी कीचड़-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती
घाव हृदय के बेतुक बीहड़.. .
बोझिल क्षण ले
मन का बढ़ना
नम पगडंडी
सहम-बिदक कर ।
*******************
--सौरभ
Comment
मित्रवर गणेशलोहानीजी, आपको मैंने बहुत कम रचनाओं पर कुछ कहते सुना है. आपने मेरी रचना को यह सम्मान दे कर मुझे कृतज्ञ कर दिया है. सहयोग के लिये सादर धन्यवाद.
आदरणीय उमाशंकरजी, ऐसा नहीं लगता कि आपने इस रचना को कुछ विशेष ही मान नहीं दे दिया है ! अच्छी रचनाओं के अपने विशेष मानक हुआ करते हैं. बहरहाल सम्मान देने के लिये हृदय से शुक़्रगुज़ार हूँ.
डॉ. प्राची, मैं इसी में खुश हूँ कि आपको यह रचना ठीक-ठीक लगी. विश्वास दिलाता हूँ, आगे और मेहनत करूँगा ताकि संप्रेषण प्रभावी हो.
हार्दिक धन्यवाद
सीमाजी, आपकी सीधी बात दिल को छू गयी. यह अवश्य बताइयेगा कि यह रचना भावपूर्ण तो है, क्या अर्थवान भी है ?
सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद.
भाई गणेशजी, मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया इसे किसी लायक बना रही है. सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद.
आदरनीय सौरभ पाण्डेय जी, सादर परनाम ,
क्यों ’उस’ की
ये पगली साँकल
आदरणीय सौरभ जी
इतने सुन्दर ढंग से मौसम का चित्रण
इस मौसम में बेबसी,पीड़ा, प्रतीक्षा का अद्भुत चित्रण
पूरा का पूरा दृश्य आँखों के सामने गुजर गया
राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।.....उस की ....पगली साँकल...हिल कर ..वह अद्भुत कल्पना
घाव हृदय के बेतुक बीहड़.. . आदरणीय शब्द कम होंगे बहुत लाजवाब है
दिल को भेदती इस रचना के हर शब्द को नमन
हार्दिक बधाई आदरणीय
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
कभी-कभी बातें सीधी-सीधी सुनने को मिले तो बहुत अच्छा लगता है. गीत का असर देर तक बना रहता है........कोई शक नहीं इस गीत का असर देर तक बना रहेगा :)
आलमिरे की
हर चिट्ठी से
बेसुध हो कर फिर बतियाना......क्या बात है !!!!इस प्रकार से शब्द प्रयोग आप ही कर सकते हैं
चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में
कबसे एक
पता बसता है
जाने क्यों
हर आनेवाला
राह बताता-सा लगता है ........बिलकुल मन के भावों को खंगाल कर शब्द दे दिये
गुच्ची-गड्ढे
उथले रिश्ते
आपसदारी कीचड़-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती
घाव हृदय के बेतुक बीहड़..........बारिश के मौसम का एक यह भी रंग है .... मिटटी में लिपटे सोंधे-सोंधे शब्द
आप की कलम की खासियत से लबरेज
शब्दों की मिठास ने गीत में जान फूंक दी है
//राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।//
आहा ! बहुत ही प्रवाहमयी रचना, आदरणीय सौरभ भईया, आपकी रचना बिलकुल सरल रेखा में बहती नजर आती है, शब्दों का ऐसा संयोजन वाह वाह, ह्रदय बरबस ही आकर्षित हो जाता है, सांकल का प्रयोग बहुत ही रुचा, इस नवगीत पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय |
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