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बारिश की धूप

सूरज कर्कश चीखे दम भर
दिन बरसाती
धूल दोपहर.. .।

उमस कोंसती
दोपहरी की
बेबस आँखों का भर आना
आलमिरे की 
हर चिट्ठी से
बेसुध हो कर फिर बतियाना.. .

राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये
पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।

चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में
कबसे एक
पता बसता है
जाने क्यों
हर आनेवाला 
राह बताता-सा लगता है

पलकें राह लिये जीतीं हैं 
बढ़ जाता
हर कोई सुनकर ।

गुच्ची-गड्ढे
उथले रिश्ते
आपसदारी कीचड़-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती 
घाव हृदय के बेतुक बीहड़.. .

बोझिल क्षण ले
मन का बढ़ना
नम पगडंडी
सहम-बिदक कर ।

*******************
--सौरभ

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 21, 2012 at 11:20pm

मित्रवर गणेशलोहानीजी, आपको मैंने बहुत कम रचनाओं पर कुछ कहते सुना है. आपने मेरी रचना को यह सम्मान दे कर मुझे कृतज्ञ कर दिया है.  सहयोग के लिये सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 21, 2012 at 11:18pm

आदरणीय उमाशंकरजी, ऐसा नहीं लगता कि आपने इस रचना को कुछ विशेष ही मान नहीं दे दिया है ! अच्छी रचनाओं के अपने विशेष मानक हुआ करते हैं. बहरहाल सम्मान देने के लिये हृदय से शुक़्रगुज़ार हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 21, 2012 at 11:16pm

डॉ. प्राची, मैं इसी में खुश हूँ कि आपको यह रचना ठीक-ठीक लगी. विश्वास दिलाता हूँ, आगे और मेहनत करूँगा ताकि संप्रेषण प्रभावी हो.

हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 21, 2012 at 11:14pm

सीमाजी, आपकी सीधी बात दिल को छू गयी. यह अवश्य बताइयेगा कि यह रचना भावपूर्ण तो है, क्या अर्थवान भी है ?

सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 21, 2012 at 11:10pm

भाई गणेशजी, मेरी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया इसे किसी लायक बना रही है. सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद.

Comment by ganesh lohani on September 21, 2012 at 2:22pm

आदरनीय सौरभ पाण्डेय जी, सादर परनाम ,

बहुत सुन्दर रचना इस आधुनिकता की दौड़ में छटफटाहट महसूस हो रही  है दर्द भी उन दिनों को याद कर जब अपने सगा प्रेमियों की  चिठ्ठीयों को करीने से लगा कर रखते थे बीच बीच में उनको को उलट पलट कर पढना और डाकिये की राह तकते रहना | मोबाइल का दौर आया कुछ समय तक खूब बतियाते रहे | अब तो अपनों को भुला कुछ एक नए लोगोसे ही फुरसत नहीं है | 
   राह देखती 

क्यों ’उस’ की 
ये
 पगली साँकल 

रह-रह हिल कर |     यहाँ बड़ी सरल भाषा में "साँकल" दर्द और भी गहरा गया |
गुच्ची-गड्ढे 
उथले रिश्ते 
आपसदारी कीचड़-कीचड़ 
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती  
घाव हृदय के बेतुक बीहड़..   बहुत सुन्दर, इस सच्याई से मुहं नहीं मोड़ सकते|
बोझिल क्षण ले 
मन का बढ़ना 
नम पगडंडी 
सहम-बिदक कर ।  
अब तो पगडण्डी भी रूठ गयी हैं 
Comment by UMASHANKER MISHRA on September 21, 2012 at 12:21pm

आदरणीय सौरभ जी 

इतने सुन्दर ढंग से मौसम का  चित्रण 

इस मौसम में बेबसी,पीड़ा, प्रतीक्षा का अद्भुत चित्रण 

पूरा का पूरा दृश्य आँखों के सामने गुजर गया 

राह देखती 
क्यों ’उस’ की 
ये
 पगली साँकल 
रह-रह हिल कर ।.....उस की ....पगली साँकल...हिल कर ..वह अद्भुत कल्पना 

घाव हृदय के बेतुक बीहड़.. . आदरणीय शब्द कम होंगे बहुत लाजवाब है 

दिल को भेदती इस रचना के हर शब्द को नमन 

हार्दिक बधाई आदरणीय 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 21, 2012 at 9:57am

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,

सुप्रभात.
बहुत सुन्दर गीत है यह...
पहली बार पढ़ा तो सिर्फ, आधा समझ में आया..कि किसी प्रिय की याद और इंतज़ार में लिखी गयी रचना है.
दूसरी बार पढ़ा तो रचना के शीर्षक 'बारिश की धूप' से मैं रचना का सामंजस्य नहीं बिठा पाई.
 
अब तीसरी बार आज सुबह यह रचना पढ़ी तो..  क्या ही अद्भुत चित्र  उभर कर आया है सामने,
 
गुच्ची-गड्ढे 
उथले रिश्ते 
आपसदारी कीचड़-कीचड़ 
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती  
घाव हृदय के बेतुक बीहड़.........क्या अनोखा बिम्ब दिया है आपने रिश्तों के उलझते सत्य और पीड़ा को.
 
बोझिल क्षण ले 
मन का बढ़ना 
नम पगडंडी 
सहम-बिदक कर । ...........बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
 
इस नवगीत की हर पंक्ति में जिंदगी बसी है..... ह्रदय से बधाई स्वीकार करें इस अभिव्यक्ति के लिए.  सादर.
 
Comment by seema agrawal on September 20, 2012 at 11:03pm

कभी-कभी बातें सीधी-सीधी सुनने को मिले तो बहुत अच्छा लगता है. गीत का असर देर तक बना रहता है........कोई शक नहीं इस गीत का असर देर तक बना रहेगा :)
आलमिरे की  
हर चिट्ठी से 
बेसुध हो कर फिर बतियाना......क्या बात है !!!!इस प्रकार से शब्द प्रयोग आप ही कर सकते हैं 

चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में 
कबसे एक 
पता बसता है 
जाने क्यों 
हर आनेवाला  
राह बताता-सा लगता है 
........बिलकुल मन के भावों को खंगाल कर शब्द दे दिये 

गुच्ची-गड्ढे 
उथले रिश्ते 
आपसदारी कीचड़-कीचड़ 
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती  
घाव हृदय के बेतुक बीहड़..........बारिश के मौसम का एक यह भी रंग है .... मिटटी में लिपटे सोंधे-सोंधे शब्द 
आप की  कलम की खासियत से लबरेज 
शब्दों की मिठास ने गीत में जान फूंक दी है 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 20, 2012 at 10:43pm

//राह देखती
क्यों ’उस’ की
ये
पगली साँकल
रह-रह हिल कर ।
//

आहा ! बहुत ही प्रवाहमयी रचना, आदरणीय सौरभ भईया, आपकी रचना बिलकुल सरल रेखा में बहती नजर आती है, शब्दों का ऐसा संयोजन वाह वाह, ह्रदय बरबस ही आकर्षित हो जाता है, सांकल का प्रयोग बहुत ही रुचा, इस नवगीत पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय |

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