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गुजश्ता दिनों की याद मुझे जब भी आती है ,
मेरी तनहायी मुझसे कुछ कहती है कुछ छुपा जाती है , (१)

याद तेरे वादों की भी है तेरे इरादों की भी है ,

रात आती है और कुछ सताती है कुछ रुलाती है ,(२)

सारे जहां में चर्चे हुए थे अपने लाब्वो लुवाब के,

क्या खाक इश्क करते डरके जालिम समाज से (३)

डर ऐसा हावी हुआ उनके दिलो दिमाग में,
वो छोड़ गये हमको रोता खुद की मज़ार पे, (४)

जब भी देखा तुझे आया नुरे खुदा नजर ,

कुछ ने कहा काफिर कुछ ने बुतपरस्त बता दिया (५)

घर जल रहा था उसका खुश थे शहर के लोग ,

काफिर के घर में शायद दीवार नहीं होती , (६)

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Comment

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Comment by प्रमेन्द्र डाबरे on September 20, 2012 at 8:24pm
लोकेश जी आप छुपे रुस्तम हैं, किस सरलता से आप ने गहरी बात कह डाली... लिखते रहिये.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 20, 2012 at 6:34pm

अच्छे शेर कहे हैं लोकेश जी बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

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