उम्र कब तलक गिराबांरेनफस को उठाती है
कमरेकी हवा भी अब खिड़कियों से जाती है
माहोसाल गुज़रे दिलके अंधेरों में रहते रहते
तारीकियोंसे भी अब कोई रौशनीसी आती है
तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह
सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है
मुझमें भी हैं हसरतें इक आम इंसाँ की तरह
माना कि मैं एक बेमाया दिया हूँ पे बाती है
एक उज़लतअंगेज शाम तेरे गेसू में आ बसी
एक अल्साई सुबह तेरी आँखोंमें मुस्कुराती है
तुझसे वो छेड़- छाड़, वो तेरा रूठना मचलना
मुझको मेरी नादानियों की बड़ी याद आती है
मैं जाता था तेरे दर से उठ के ये सोचते हुए
कितनी हस्रत लिए ज़िंदगी ज़िंदगीसे जाती है
मुहब्बत हो नहीं सकती कामिल जुज़राहेवस्ल
तेरी वही इक गलतफ़हमी आज भी दुखाती है
ये दिन क्यूँ इतना ठहरा-ठहरासा है दीवारों पे
क्या ये भी हमारी तरह रंजूर -ओ-जज़्बाती है
जहाँ बसी है तेरे दामनकी बूएसदरंग अभी भी
मुझ को उस दयार की सोंधी मिट्टी बुलाती है
न उठो बज़्मसे अभी कि ठहरो कुछ देर और
आस्तानेपे मुंतज़िर इक आखरी मुलाकाती है
राज़ से क्यूँ पूछते हो बाईसे उदासियाँ उसकी
ये मसअला बहुत संजीदा और बहुत ज़ाती है
© राज़ नवादवी
भोपाल, रविवार २३/०९/२०१२, प्रातःकाल १०.२२
गिराबांरेनफस- साँसों का बोझ; माहोसाल- महीने और साल; तारीकियोंसे- अंधेरों से; बेजा- अनुचित, असंगत; शगल- आदत; बेमाया दिया- बिना तेल का दिया; उज़लतअंगेज शाम- ईश्वरीय एकांत को पैदा करनेवाले शाम; गेसू- अलक, ज़ुल्फ़; कामिल- पूर्ण; जुज़राहेवस्ल- मिलन की राह के अलावा; रंजूर -ओ-जज़्बाती- दुखी और भावुक; बूएसदरंग- सौ रंगों वाली खुश्बू; दयार- जगज, प्रदेश; बज़्म- महफ़िल, सभा; आस्तानेपे- ड्योढ़ी/चौखट पे; मुंतजिर- प्रातीक्षारत; संजीदा- मुलाकाती- मिलाने वाला; गंभीर; ज़ाती- व्यक्तिगत
Comment
ये दिन क्यूँ इतना ठहरा-ठहरासा है दीवारों पे
क्या ये भी हमारी तरह रंजूर -ओ-जज़्बाती है
जहाँ बसी है तेरे दामनकी बूएसदरंग अभी भी
मुझ को उस दयार की सोंधी मिट्टी बुलाती है
इन शेरों की क्या बात करूँ पूरी ग़ज़ल ही लुभाती है ..वाह दाद कबूल कीजिये
शुक्रिया जनाबोमुहतरम गणेश जी. मुझे बेहद खुशी है कि आपको मेरा कलाम पसंद आया. मैं और अन्य अनगिनत लोगों की तरह आपका इसलिए भी शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने ओबीओ की नींव रखके जो मिसाल दी है ज़माने को वो सचमुच नायाब है और आपकी दास्ताँ पढ़के दिल भर सा आया. मगर खुशी है कि आपने अपने माहौल और ज़िंदगी की तमाम हदों को बेजा साबित किया और कामरान हुए.
Hats-off to you!
-राज़
//तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह
सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है//
वाह वाह, क्या बात है, बहुत ही सुन्दर शेर, अच्छी ग़ज़ल पढ़ी है आदरणीया राज नवाद्वी जी, बधाई कुबूल करें |
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