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आपके रचनाभिव्यक्ति की सराहना मिल जाने से रचना की सार्थकता की पुष्टि हो गई |
एक अच्छी व्यवस्था भी आपसी गलतफहमियों और स्वार्थपरता के चलते किस प्रकार अव्यवस्थित हो जाती है इसका दुःख आपकी रचना में सही प्रकार से परिलक्षित हुआ है
बहुत सधी हुयी अभिव्यक्ति है
हार्दिक बधाई
आदरणीय सीमा जी, हमारे यहाँ राजस्थान में सीर शब्द साझे के लिए प्रयोग में लिया जाता है |अधिकतर पुरानी हवेलियाँ जिनमे तीन-चार पीड़ियाँ गुजर गयी विभाजन और फिर उप विभाजन के फल स्वरुप ८-१० या उससे अधिक परिवारों में बटवारा हो जाता है | ऐसे में चौक, पोली(दरवाजेऔर चौक के मध्य का हिस्सा, रोस, तहारत (शौचालय) और सीडियां सबके सांझे में कॉमन होती है,जिनकी देख भाल,टूट-फूट,मरम्मत यहाँ तक सफाई तक का खर्च कॉमन होता है | ऐसे आजकल इनकी देखभाल, सार सम्भाल के लिए न कोई समय देनाचाहता है न ही खर्च करना चाहता है | इस प्रकार के बड़ी बड़ी हवेलियाँ सांझे की या सीर की हवेलियाँ कहलाती है | वैसे यह रचना मेरी एककहानी "अपनापन" (1978 में अग्रगामी (मासिक) में प्रकाशित, (प्रकशित कहानी यहाँ पोस्ट करना उचित नहीं होगा) पर आधारित है |
सीर की हवेली |...मुझे इस शब्द का अर्थ बताइए आदरणीय लक्ष्मण जी जानने के बाद मैं दोबारा उपस्थित होती हूँ इस रचना पर | कुछ तो आपकी बात ग्रहण कर सकी हूँ जो सर्वथा सत्य है पर पूरा समझना चाहती हूँ |
आदरणीय श्री गणेश जी बागी जी आपको रचना रुचिकर लगी,मेरा लिखना सार्थक हुआ,
आदरणीय लडिवाला जी, यह रचना मुझे रूचि, इस अभिव्यक्ति पर बहुत बहुत बधाई और दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हो |
रचना पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई राज नवादवी जी
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