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ग़ज़ल - वो मेरी शख्सियत पर छा गया तो

एक ताज़ा ग़ज़ल पेश ए खिदमत है गौर फरमाएं -

वो मेरी शख्सियत पर छा गया तो | 
ये सपना है, मगर जो सच हुआ तो |

दिखा है झूठ में कुछ फ़ाइदा तो |
मगर मैं खुद से ही टकरा गया तो |

मुझे सच से मुहब्बत है, ये सच है,
पर उनका झूठ भी अच्छा लगा तो |

शराफत का तकाज़ा तो यही है,
रहें चुप सुन लिया कुछ अनकहा तो |

करूँगा मन्अ कैसे फिर उसे मैं,
दिया अपना जो उसने वास्ता तो |

रहीम इस बार तो 'कुट्टी' न होना,
अगर मैं राम से 'मिल्ली' हुआ तो |

रकीबों में वो गिनता है मुझे और,
  गले भी लग गया मुझसे मिला तो |

वो रहमत कर रहे हैं सिर्फ मुझ पर, 
कहीं दिल कहर ढाने का हुआ तो |

हमें बस शायरी का शौक है, पर, 
यही इक शौक भारी पड़ गया तो |

वो मानेगा मेरी बातें, ये सच है,
करेगा दिल की ही ज़िद पर अड़ा तो |

जरूरत से जियादः टोकते हैं,
कोई दिखला गया गर आईना तो |

लगा रहता है मुझको डर बराबर
मेरा हर शे'र उनको भा गया तो |


खुले हो जिस तरह तुम उनसे 'वीनस',
अचानक तोड़ लें वह राबिता तो |

बने हो यूँ तो आतिशदान 'वीनस',
डरे भी हो धुँआ उठने लगा तो |

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 2:00pm

चन्द्रेश जी शेअर को पसंद करने और प्रोत्साहित करने के लिए शुक्रगुजार हूँ

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 1:59pm

राज साहब आभार

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 1:59pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी ह्रदय से आभारी हूँ

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:30pm

बने हो यूँ तो आतिशदान 'वीनस', 
डरे भी हो धुँआ उठने लगा तो |

वाह बहुत खूब !!

Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 3:06pm
धनवाद भाई वीनस जी जो आपने अपने इल्मओइस्लाह से हमें नवाज़ा. बात सच कही आपने, किसी चीज़ की आशिकी ही उसे मकम्मिल तौर पे दस्तयाब कराती है, जुनूं ओ दीवानगी के बगैर मजनूँ नहीं पैदा हुआ करते! सो आजकल बह्र की लैला का मजनूं बना फिरता हूँ. हा हा हा हा ! सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 26, 2012 at 9:37am

रकीबों में वो गिनता है मुझे और, 
  गले भी लग गया मुझसे मिला तो | 

बने हो यूँ तो आतिशदान 'वीनस', 
डरे भी हो धुँआ उठने लगा तो |------बहुत खूबसूरत ग़ज़ल लिखी वीनस जी मजा आ गया पढ़ कर हर शेर जानदार है और ये तो बहुत बहुत पसंद आये ढेरों दाद कबूल करें 

 

 

Comment by वीनस केसरी on October 26, 2012 at 12:12am

सौरभ जी, अनिल जी, डॉ. प्राची जी, संदीप जी, और गणेश जी

आप सभी को हृदल तल से धन्यवाद

ग़ज़ल को पसंद किया इससे निश्चित ही मेरा हौसला बढ़ा है उत्साहित हुआ हूँ कुछ और कह सकने को ...
सादर

Comment by shalini kaushik on October 25, 2012 at 9:13pm

बने हो यूँ तो आतिशदान 'वीनस', 
डरे भी हो धुँआ उठने लगा तो |

nice expression 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 24, 2012 at 7:55pm

वाह भाई वीनस वाह, क्या बात है, मतला , हुस्ने मतला और दो मक्ता, एक को हुस्ने मक्ता कहूँ तो ....

//रहीम इस बार तो 'कुट्टी' न होना,
अगर मैं राम से 'मिल्ली' हुआ तो |//

इस शेर पर लख लख बधाई, खुबसूरत ग़ज़ल है भाई, इस अभिव्यक्ति पर बहुत बहुत बधाई और दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार हो |

Comment by वीनस केसरी on October 23, 2012 at 10:18pm

राज साहब,
बहर तो आपने खूब पहचानी और जो हाले दिल आपने बयान किया है यह तो सभी के साथ हो कर गुज़रता है
बिलकुल वैसे ही जैसे ताज़ा ताज़ा इश्क का मुआमला हो तो आशिक को हर तरफ माशूक ही दिखता है :))))

बैसे बहर के नाम में मुसम्मन नहीं लगेगा क्योकि यह तब लगता है जब अरकान में ४ रुक्न हों यहाँ तीन हैं इसलिए मुसद्दस लिखेंगे और एक जिहाफ भी है जो "मुफाईलुन" को "फ़ऊलुन" करता है जिसका नाम "महजूफ़" है 
तो बहर का नाम हुआ = "हजज मुसद्दस महजूफ़"

ग़ज़ल को अपने पसंद किया इसके लिए शुक्रगुजार हूँ

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