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मत्तगयन्द सवैया छन्द

 

 


देह नही सुधि गेह नहीं सुधि ,, छूटि गयो ब्रज धाम जभी से 

चैन नही दिन रैन सखे अब ,, शूल लग्यो हिय जोर तभी से 

याद सतावत गोपहि ग्वालन ,, माखन खायहु नाहि कभी से 

क्रूर अक्रूरहि दूर कियो मोहि ,, तातहि बात कह्यो य सभी से
 
और लिखा ख़त एक रखा पिय  ,, नाम छुपाय रखा कमली से 
 
देखत ही ख़त नैन  गिरे जल ,, काँपत होंठ लगे बिजली से 
 
नैन मिले तब चैन मिले कह ,, जाकर दो वृषभान लली से
 
रास न आवत राज सिंहासन ,, छूटत बांसुरि है अंगुली से 
 
 
चिदानन्द शुक्ल "संदोह "

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Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on October 26, 2013 at 8:25pm

आदरणीय शुक्ल जी, हार्दिक बधाई।

Comment by Chidanand Shukla on October 29, 2012 at 4:28pm

शुक्रिया शालिनी जी 

Comment by shalini kaushik on October 28, 2012 at 11:59pm

  सार्थक भावपूर्ण प्रस्तुति बधाई 

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