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रंग बदलना सीख ले जमाने की तरह..!!!

रंग बदलना सीख ले जमाने की तरह ,
ना सच को दिखा आईने की तरह ।

ना पकड इक साख को उल्लू की मानिंद ,
वक़्त-ए-हिसाब बैठ डालों पर परिंदों की तरह ।

ना उलझा खुद को रिश्तों की जंजीरों में ,
कर ले मद-होश अपने को रिन्दों की तरह ।

ना कर हलकान खुद को ,हर तरफ है मायूसी ,
हो जा बे-दिल बे-मुरव्वत परिंदों की तरह ।

गर मिलती है इज्ज़त यहाँ ,मरने के बाद ,
फिर ‘कमलेश’क्यों जीना जिन्दों की तरह ॥

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Comment by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on February 7, 2011 at 8:38pm
बागी जी मेरी सारी रचनाएँ अपने ब्लॉग्स से ही हैं  ..चाहे रहने दें ,या हटा दें,,,
Comment by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 28, 2010 at 9:41pm
एक अजीब कशिश है आपकी इस ग़ज़ल में ...कमलेश जी ज़माने की सारी पीर इन दो पंक्तियों में लिपिबद्ध होगई...ज़िन्दगी और जिंदादिली का हिमायती मैं आज आपके इस सवाल का जवाब देने में बिलकुल असहाय पा रहा हूँ ...बधाई हो

गर मिलती है इज्ज़त यहाँ ,मरने के बाद ,
फिर ‘कमलेश’क्यों जीना जिन्दों की तरह ॥
Comment by satish mapatpuri on October 27, 2010 at 12:45pm
ना उलझा खुद को रिश्तों की जंजीरों में ,
कर ले मद-होश अपने को रिन्दों की तरह ।
वाह कमलेश जी, दिल को छु गई यह बात. बहुत -बहुत बधाई.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 26, 2010 at 10:17pm
कमलेश भाई बहुत दिनों बाद आपका आगमन हुआ है, अच्छी नज्म लिखा है आपने | धन्यवाद,

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