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घर में पलती इसी धूप के साथ पला मैं छाँव हो गया .....................

थकी हुयी शतरंज का, मैं पिटा हुआ इक दांव हो गया 

भाग्य कर्म के घमासान में मैं धरती का घाव हो गया I 
........................................................................................
बचपन में आँगन में खेली तरुडाई में मुंडेरों पे 
घर में पलती इसी धूप के साथ पला मैं छाँव हो गया 
........................................................................................
जब जब बोझ पड़ा अनचाहा जीवन की रफ़्तार थम गयी 
कन्धों के सम्मान लुट गए ,  थके हुए मैं पाँव हो गया 
........................................................................................
साम्य नहीं था लहरों से या तट की कुछ लम्बाई कम थी 
कुटिल गडित में सागर के मैं , तूफ़ानों की नाव हो गया 
........................................................................................
थे प्रतिबन्ध बहुत फिर भी सीमायों का हुआ अतिक्रमद 
जब से शहरी सन्दर्भ जुड़ गए लुटा हुआ मैं गाँव हो गया 
........................................................................................

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on December 6, 2012 at 1:08am

बहुत खूब अजय साहिब
अच्छी कविता है
सुन्दर भावाभिव्यक्ति

कृपया ध्यान दे...

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