शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को
समझ गए रिक्शे भी भीड़ के इशारों को
बच्चो के खेल सब कमरों में गए बिखर
ठिठक गए चौराहे भी खम्भों के इधर उधर
सुलग उठे हल्के हल्के बल्बों के मन उदास
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
अलसाई पलकों से नींदों का बढ़ा मान
ले के थकन आ गयी स्वप्न का सारा सामान
ठिठुरन भी चूल्हों के बाहों में बँट गई
छाती की उस्ड़ता पैरो से लिपट गई
फुटपाथी तापमान काया ने जोड़ लिया
शीत की चादर को साँसों ने ओढ़ लिया
करवटें भी भूल गई बाकी सब तलाश
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
चाय के पियालो से ट्रेफिक की सीटी तक
अनसन और हड़ताले आग से अंगीठी तक
केवल बस केवल नाम रहा खास का
देश मेरा लग रहा शीत में फुटपाथ सा
दुखते हुए जोड़ है शीत का उलाहना है
बुझते हुए चूल्हों को शीत का बहाना है
शीत करे राजनीति मनरेगा है हताश
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
Comment
आदरणीय अजय जी,
आपकी कविता में बहुत से लोगों के जीवन की सच्चाई है।
बधाई,
विजय निकोर
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
वाह क्या बात है.
बधाई
आदरणीय अजय जी सादर
चाय के पियालो से ट्रेफिक की सीटी तक
अनसन और हड़ताले आग से अंगीठी तक
केवल बस केवल नाम रहा खास का
देश मेरा लग रहा शीत में फुटपाथ सा
दुखते हुए जोड़ है शीत का उलाहना है
बुझते हुए चूल्हों को शीत का बहाना है
शीत करे राजनीति मनरेगा है हताश
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ || .....
नमस्कार अजय जी
आपकी रचनाएँ रुक कर सोचने को मजबूर करती हैं ... बहुत खूब!! बधाई स्वीकार करें
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