गणतंत्र की जय !
गणराज्य की जय !
गणतन्त्र की सरहदें,
, गणराज्य की सरहदें,
जो तय की थी हमने,
वो टूट क्यों जाती हैं,
प्रजा के जुटने पर ?
प्रजातंत्र / लोकतंत्र /गणतन्त्र !
प्रजा से डरता क्यों है ?
उसे तो हमने ही बुना था,
अपने लिए !
आज वो खोखला हो गया है !
या खोखला कर दिया गया है !!
वो अपनी ही शक्ति से,
गण से प्रजा से,
कतराता क्यों है ?
शायद गणतंत्र के रखवालों ने,
बदल दी अट्टालिकाएं,
प्रजातंत्र की / लोकतंत्र की /गणतन्त्र की !
तभी तो गणराज्य दूर हो गया है,
गण से प्रजा से !
फिर भी गणतंत्र की जय !
गणराज्य की जय !
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राजेश भारद्वाज जी सादर, सच है आज जनतन्त्र जन से ही दूर है, सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें.
गण का तन्त्र गण से आज दूर हो गया.
जीता गाडी में बैठा नशे में चूर हो गया,
हम बैठे बाट जोहते रहे उसकी हर बरस,
आया जरुर,वोट लिया और फुर्र हो गया/
तहे दिल से शुक्रिया !
मन की अनुभूतियों को व्यक्त करती हुई सुंदर रचना....
सही कहा है आपने, प्रजातंत्र अपनी प्रजा से आज दूर दीखता है. बेहतर प्रयास किया है आपने, राजेश जी.
शुभेच्छाएँ
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