सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं
छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं
उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं
उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से
अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं
ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’
प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते हैं
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(यह ग़ज़ल स्वरचित एवं अप्रकाशित है)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया रक्ताले साहब
आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, सुन्दर और मनोरंजक प्रस्तुति वाह गुनगुनाकर मन प्रफुल्लित हो गया. सादर बधाई स्वीकारें.
upasna siag जी, धन्यवाद
बहुत बढ़िया जी ..
बहुत बहुत धन्यवाद SANDEEP KUMAR PATEL साहब
बहुत बहुत शुक्रिया Arun Srivastava साहब
आदरणीय विजय जी बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सौरभ जी , आपका अपार स्नेह और आशीर्वाद यूँ ही बना रहे। बैक्टीरिया तो नहीं, आप जैसे विद्वानों से मिलने जुलने का परिणाम है। हार्दिक धन्यवाद।
वीनस जी की निगाह में आ गई ग़ज़लगोई सफल हो गई। बहुत बहुत शुक्रिया साहब
बहुत बहुत शुक्रिया नादिर ख़ान साहब, स्नेह बना रहे
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