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ग़ज़ल : तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२

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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा

तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

 

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई

है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा

 

गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए

कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा

 

बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग 

सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा

 

अंधविश्वास, अशिक्षा और घर घुसरापन

है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा

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(स्वरचित एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 9, 2013 at 10:19am

बहुत बहुत धन्यवाद Ashok Kumar Raktale साहब

Comment by Ashok Kumar Raktale on March 8, 2013 at 10:26pm

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई

है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा...........वाह! बहुत खूब.

उम्दा गजल.सादर दिली दाद कुबुलें आदरणीय धर्मेन्द्र जी.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2013 at 2:28pm

बहुत बहुत धन्यवाद vijay nikore जी, स्नेह बनाये रखें

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2013 at 2:27pm

शुक्रिया Laxman Prasad Ladiwala जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2013 at 2:27pm

आभारी हूँ by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2013 at 2:26pm

बहुत बहुत धन्यवाद PRADEEP जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 8, 2013 at 2:26pm

बहुत बहुत धन्यवाद Saurabh Pandey जी, स्नेह यूँ ही अनवरत बनाये रखें

Comment by vijay nikore on March 7, 2013 at 6:20pm

धर्मेन्द्र जी,

अच्छी गज़ल के लिए बधाई।

सादर,

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 7, 2013 at 5:01pm

गजल का प्रत्येक शेर ही उम्दा है श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, हार्दिक बधाई स्वीकारे 

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on March 7, 2013 at 4:02pm

धर्मेंद्र भाई नमस्कार ! क्या खूब कहा है जनाब॥कुर्बान जाऊन ऐसी ग़ज़ल पे।

एक एक शेर बोल रहा है....

पूरी ग़ज़ल ही शानदार हुई है॥

दाद कुबूल हो !

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