सब कुछ अपने पर सहती है,
तूफान उड़ा ले जाते मिटटी,
सीना फाड़ के नदी बहती है !
सूर्यदेव को यूँ देखो तो,
हर रोज आग उगलता है,
चाँद की शीतल छाया से भी,
हिमखंड धरा पर पिघलता है !
ऋतुयें आकर जख्म कुदेरती,
घटायें अपना रंग जमाती,
अम्बर की वो नीली चादर,
पल पल इसको रोज़ सताती !
हम सब का ये बोझ उठाकर,
परोपकार का मार्ग दिखाती,
सहन शीलता धर्मं है अपना,
हमको जीवन जीना सिखाती !
- रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'
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dhartti maan ka bakhan sunder rachana badhai
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