कंह गोरी पनघट कहाँ,कंह पीपल की छांव।
पगडंडी दिखती नहीं,बदल रहा है गांव॥
बदल रहा है गाँव,खत्म है भाईचारा।
कुछ परिवर्तन ठीक,किन्तु कुछ नहीं गवारा॥
ग्लोबल होते गाँव,गाँव की मार्डन छोरी।
कहें विनय नादान,कहाँ पनघट कंह गोरी॥
पगडंडी ये गाँव की,सड़क बनी बेजोड़।
जो जाती है शहर को,जन्म-भूमि को छोड़॥
जन्म-भूमि को छोड़,कमाने रोजी जाते।
करते दिनभर काम,रात फुटपाथ बिताते॥
भर विकास का दम्भ,शहर कितना पाखंडी।
हमको आये याद,गाँव की वो पगडंडी॥
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय विन्ध्येश्वरी जी,
बहुत सुन्दर भाव दोनों कुण्डलिया छंदों के,
गाँव के होते जाते शहरीकरण में बहुत कुछ बदला है, जिसे पीड़ा आप सहजता से संप्रेषित कर पा रहे हैं,
बहुत बहुत बधाई..
एक बात आपकी दूसरी कुण्डलिया को पढ कर मन में आयी है...
जैसा हम जानते हैं की कुण्डलिया दोहा और रोला के संयोजन से बनती है, तो क्या दोहा का भी पूर्ण अर्थ निकलना ज़रूरी नहीं है..?
पगडंडी ये गांव की,सड़क बनी बेजोड़।
जो जाता है शहर को,जन्म-भूमि को छोड़॥
इसमें पहली और दूसरी पंक्ति का आपस में सामंजस्य मैं नहीं बैठा पा रही हूँ..
आप गौर करके कुछ सांझा करे ताकि मेरा संशय दूर हो सके.
सादर.
गाँव और वहाँ की वर्तमान दशा को केन्द्र में रख कर अच्छी कुण्डलिया प्रस्तुत हुई हैं, विंध्येश्वरी भाई. दोनों कुण्डलिया के कथ्य भाव के अनुसार यथोचित रूप से संप्रेषित हो रहे हैं. इस हेतु हार्दिक बधाई.
एक बात : अनुस्वार और चन्द्र-विन्दु में मात्रा और स्वर के लिहाज से बहुत अंतर है. तदनुरूप शब्दों में अंतर भी होते हैं. यह अवश्य है इस ओर आपकी दृष्टि आवश्यक है. आपने अपनी प्रस्तुति में चन्द्र विन्दु के स्थान पर अनुस्वार का बड़ी उदारता से प्रयोग किया है जो कतिपय शब्दों के अर्थों के अनर्थ तो कर ही रहा है, पाठकों को भी भ्रम में डाल रहा है. वे शब्द है -- कहँ तथा गाँव. कहना न होगा कि कहँ शब्द कहाँ का आंचलिक रूप है.
शुभ-शुभ
विन्धेश्वरी भाई कुण्डलिया दोनों अच्छी लगी,"कहं" का प्रयोग समझ नहीं सका, जरा प्रकाश डालना चाहेंगे ।
बहुत ही सुन्दर
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