वातायन निर्वाक प्रहरी था,
बाहर मस्त पवन था
अंदर तो ‘बाहर’ निश्चुप था,
अंतर में एक अगन था.
कितने ही लहरों पर पलकर,
कितने झोंके खाकर
कितने ही लहरों को लेकर,
कितने मोती पाकर –
मैं आया था शांत निकुंज में.
मैं आया था शांत निकुंज में,
एक तूफ़ाँ को पाने
एक हृदय को एक हृदय से,
एक ही कथा सुनाने.
पर निकुंज की छाया में
थी तुम बैठी उद्भासित सी,
थोड़ी सी सकुचायी सी
और थोड़ी सी घबरायी सी.
स्तब्ध रहे कुछ पल
हम दोनों, पलकों पर थी थिरकन,
नीरव होठों पर मुस्काहट थी
और नयनों में सजग सपन.
शुरु हुआ भावों का रिसना,
हृदय कमण्डल से धीरे
बेचैन रगों से होकर पुलकित,
शांत मुखमण्डल पर धीरे.
देखा मैंने होठों की,
पंखुड़ियों को धीरे खिल उठते
भौंरे के तो बंद पंख थे,
पर कमलिनी को खिलते.
प्रकाशमय हो उठा चतुर्दिक,
जब मधुर स्वर गूँजा था
महाकाल के उस मुहूर्त को
मैं अवाक हो पूजा था.
चंचल कोयल तुम कुहक रही थी,
मैं वसंत बस श्रोता था
प्रेममयी तुम मंत्र बनी थी,
प्रेम स्वयं ही “होता” था.
इतने में मुनिया आ बैठा .
इतने में मुनिया आ बैठा,
उन हरित नव शाखों पर
देखा उसने इधर-उधर,
कुछ सहम, ठिठक कर और ठहर कर.
ठहर गयी तुम, ठहर गया मैं,
वातावरण निस्पंद मौन था
अंदर – बाहर के बीच द्वार पर,
देता यह दस्तक कौन था !
मुनिया के होठों का दस्तक,
जब अपने होठों तक पहुँचा
मुखर हुई तुम भीरू मुनिया,
उड़ कर दूर कहीं जा बैठा.
मुझको भी लग गये पंख थे,
सपनों के अम्बर में मैं था
तुम तुम ही थी, मैं मैं ही था,
तुममें मुझमें मय ही मय था.
कथा अकथित रह गयी बीच में,
दी समय ने दस्तक भारी
कर्म धर्म के पालन में
थी, अब जुट जाने की बारी.
‘विदा मित्र’ नयनों ने कहा था,
क्या नहीं सुना तुमने
विदा नहीं मुझको देना था,
(क्या) तभी नहीं चूमा तुमने !
हम तुम अशेष हैं, हैं अमिट हम,
फिर मिलन होगा हमारा
फिर से जग में जाग उठेगी,
उन कोमल भावों की धारा.
तब –
तब कोयल अस्फुट गान करेगी,
मुनिया निडर हो चहकेगा
जीवन के प्रांग़ण में फिर से,
नव वसंत एक महकेगा.
Comment
प्रिया बृजेश जी, दो शब्दों से आपने मेरे मन के बाग को नयी हरियाली दी. बहुत बहुत धन्यवाद.
श्रद्धेय विजय जी, आपके विचार की प्रतीक्षा रहती है हमेशा. आप जिस तरह स्नेहपूर्ण ढंग से प्रोत्साहन देते हैं उससे डर लगता है कहीं मेरी लेखनी साहस की सीमा पार न कर जाए. सचमुच मन प्रसन्न हो गया. हार्दिक आभार.
आदरणीया सावित्री जी, आप स्वयं कोमल हृदया कवयित्री हैं इसीलिये मेरी तुच्छ रचना के मर्म को स्पर्श कर आपने उसे गौरव प्रदान किया है. आभार. इसी प्रकार मुझे प्रोत्साहित करती रहें ऐसी कामना है.
आदरणीय आमोद जी तथा राजेश कुमार झा जी, बहुत बहुत धन्यवाद आप लोगों की मधुर प्रतिक्रिया के लिये.
आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरे पास शब्द नहीं आपको आभार व्यक्त करने हेतु. इस रचना में वर्णित चित्र हकीकत है. चौबीस साल पहले मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव रहा. आपने जो उत्तम सुझाव दिया है,वह मेरे सर आँखों पर. मेरी मातृभाषा बांग्ला है अत: हिंदी में शब्दों के चयन करते समय बांग्ला का प्रभाव पड़ना विशेष आश्चर्य की बात नहीं. आपका सुझाव बहुत अच्छा है लेकिन शायद "चूक" नहीं हुई है क्योंकि 'विदा' जैसे "किया" या "कहा" जाता है उसी तरह "दिया" भी जाता है. मेरा भाषा ज्ञान बहुत सीमित है. यदि मुझसे गलती हो रही है तो कृपया सुधार कर अनुग्रहीत करें. आपका चिर-आभारी रहूंगा.
बहुत सुन्दर!
ठहर गयी तुम, ठहर गया मैं,
वातावरण निस्पंद मौन था
अंदर – बाहर के बीच द्वार पर,
देता यह दस्तक कौन था !
आदरणीय मित्र, बहुत ही आत्मीय कविता लिखी है आपने,
हार्दिक बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
अतिसुन्दर एवं प्रेममयी भावाभिव्यक्ति ! मर्मस्पर्शी रचना ! प्रिय मिलन का सुन्दर चित्रण एवं विदाई का पीड़ापूर्ण वर्णन तथा पुनः मिलन की आशा,सच में यही प्रेम है।इस मनोहर रचना हेतु हार्दिक बधाई,शरदिंदु जी।
बहुत अच्छी रचना है, आप यूं ही लिखते रहें
तब कोयल अस्फुट गान करेगी, मुनिया निडर हो चहकेगा जीवन के प्रांग़ण में फिर से, नव वसंत एक महकेगा.... bhut hi achha.. chitran..meri shubhkamnayen.. aapko....
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