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शाम सी जिंदगी गुजरती है

रात कितनी करीब लगती है

 

याद नित पैरहन बदलती है

ये शमा बूंद बन पिघलती है

 

आंत महसूस अब नहीं करती

भूख पर आंख से झलकती है

 

हम जहां पर खड़े अभी तक थे

वो जमीं देखिए दरकती है

 

होम करने करीब आए तो

इस लपट से ये देह जलती है

                - बृजेश नीरज

 

 

 

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Comment by बृजेश नीरज on March 29, 2013 at 9:17pm

आदरणीय मोहन जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 29, 2013 at 9:16pm

अरून भाई आपका आभार!

Comment by अरुन 'अनन्त' on March 29, 2013 at 5:35pm

वाह बृजेश भाई बेहद सुन्दर ग़ज़ल कही है ढेरों दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by मोहन बेगोवाल on March 29, 2013 at 4:23pm

ब्रजेश जी , 

छोटी बहर में  जीवन की सचाई पेश करती कमाल की गज़ल

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