शाम सी जिंदगी गुजरती है
रात कितनी करीब लगती है
याद नित पैरहन बदलती है
ये शमा बूंद बन पिघलती है
आंत महसूस अब नहीं करती
भूख पर आंख से झलकती है
हम जहां पर खड़े अभी तक थे
वो जमीं देखिए दरकती है
होम करने करीब आए तो
इस लपट से ये देह जलती है
- बृजेश नीरज
Comment
आदरणीय मोहन जी आपका आभार!
अरून भाई आपका आभार!
वाह बृजेश भाई बेहद सुन्दर ग़ज़ल कही है ढेरों दाद कुबूल फरमाएं.
ब्रजेश जी ,
छोटी बहर में जीवन की सचाई पेश करती कमाल की गज़ल
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