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ग़ज़ल नo- ३ (योगराज प्रभाकर)

ये काग़ज़ पे लिखी तरक्कियां, कुछ और कहती हैं
मगर लाखों करोड़ों झुग्गियां, कुछ और कहती हैं !

बड़ा फराख दिल है शहर तेरा शक नहीं मुझ को ,
ये हर-सू बंद पड़ी खिड़कियाँ, कुछ और कहती हैं !

तेरा दा'वा है कि अमन-ओ-सकूं है शहर में सारे,
मगर अख़बार की ये सुर्खियाँ, कुछ और कहती हैं !

मुझे यकीं नहीं आता बहार आ गयी, क्यों कि
उदास चेहरे लिए तितलियाँ, कुछ और कहती हैं !

मुझे गुमान था कि मैं बना हूँ खुद के ही दम से,
मेरे बापू की बूढी हड्डियाँ, कुछ और कहती हैं !

मैं फूलों तितलितों के दरमियाँ बसना तो चाहूं, पर
मेरे कुनबे की जिम्मेवारियां, कुछ और कहती हैं !

हरेक नारी नदी को माँ बुलाना संस्कृति जिनकी
वहां जिस्मों की लाखों मंडिया, कुछ और कहती हैं

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Comment by Admin on May 10, 2010 at 1:44pm
तेरा दा'वा है कि अमन-ओ-सकूं है शहर में सारे,
मगर अख़बार की ये सुर्खियाँ, कुछ और कहती हैं !

हरेक नारी नदी को माँ बुलाना संस्कृति जिनकी
वहां जिस्मों की लाखों मंडिया, कुछ और कहती हैं

शब्दों का अकाल पड़ा,
कुछ समझ न आता ,
मै क्या लिखू,
सब कुछ लिख गये आप,
कुछ बात न बचा,
मै क्या लिखू ,
कलम हाथ मे लेकर,
सोच रहा हु,
मै क्या लिखू,
सूरज को दीप दिखाना ,
ठीक नहीं,
मै क्या लिखू,


आदरणीय योगराज साहब , वास्तव मे आप ने इतनी उम्द्दा ग़ज़ल प्रस्तुत किया है की मै कुछ लिखने मे असमर्थ पा रहा हु, बहुत ही शानदार अभिव्यक्ति है, सभी शेयर बहुत ही खुबसूरत और अर्थपूर्णबने है, अन्तिम शेयर तो काफी अच्छा बना है, बहुत बढ़िया, हम सभी को गर्व है की ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार मे आप जैसा हिरा है, धन्यवाद ,
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on May 10, 2010 at 12:49pm
bahut badhiya yograj jee......dil ko chu lene wali rachna hai.
बड़ा फराख दिल है शहर तेरा शक नहीं मुझ को ,
ये हर-सू बंद पड़ी खिड़कियाँ, कुछ और कहती हैं !\
bahut badhiya hai...aisehi likhte rahe.....keep it up....
Comment by Biresh kumar on May 10, 2010 at 12:26pm
sidha dil ko cheer gayi prabhakar saab!!

kya baat

kya baat


or

kya baat!!!!!!!!!

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