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आज फिर उसका मन व्यथित था
हाहाकार कर रहा था हृदय
एक कथित पुरुष में
हैवान साकार हुआ था फिर.. 
फिर हैवानियत जीत गई थी 
नरपिशाच के पंजों में
आ गई थी 
फिर एक नन्ही /मासूम सी 
गुड़िया 
आज फिर उसने
अख़बार छिपाया.. 
टीवी के केबल 
निकाल दिये..
उसके भी घर मे  
एक गुड़िया है 
उससे आँख जो मिलानी है..!

आख़िर वह भी तो
एक मर्द है....
"मौलिक व अप्रकाशित" 
पिछला पोस्ट => तुम कैसे श्रेष्ठ ?

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 24, 2013 at 9:07am

आदरणीय भ्रमर जी, रचना आपको छू सकी, लेखन कर्म सार्थक हुआ, बहुत बहुत आभार स्नेह बनाये रखें |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 24, 2013 at 8:33am

सराहना हेतु आभार आदरणीय मनोज शुक्ला जी । 

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on April 24, 2013 at 8:02am

"ये क्या किया इंसानियत की आन ऐसे लूट ली.

हम शर्म से बैठे झुकाए सर कहीं के न रहे."

यही स्थिति होती है आ बागी भाई... टीवी आन करते भी दिल डरता है...

Comment by अशोक कत्याल "अश्क" on April 24, 2013 at 8:00am

आदरणीय बागी जी ,

आज फिर उसने
अख़बार छिपाया.. 
टीवी के केबल 
निकाल दिये..
उसके भी घर मे  
एक गुड़िया है 
उससे आँख जो मिलानी है ,
अंतरमन को झकझोर देने वाली  सामयिक रचना ,
बधाई ,
Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 24, 2013 at 12:14am

आदरणीय बागी जी ..दर्पण दिखाती ..सम सामयिक रचना ..दर्द छलक पडा ...कैसे बचेगा ये समाज ? 

ये नरपिशाच हैं या मानसिक रूप से पागल ...
भ्रमर ५ 
Comment by manoj shukla on April 23, 2013 at 10:33pm
बहुत बढिया रचना..आदर्णीय ...अंतरमन को झकझोर देने वाली अभिव्यक्ती...बधाई स्वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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