जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।
सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।
जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,
तंग चालों बीच जुड़ता, घोंसला उनके लिए।
झाड़ते हैं हर गली, हर रास्ते की धूल जो,
धूल ही होती दवा है, या दुआ उनके लिए।
गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।
क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,
भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।
बेरहम शासन तले जो, घुट रहा है आम जन,
रहनुमाओं ने अभी तक, क्या किया उनके लिए।
*'शहर' शब्द का वज़न हिन्दी उच्चारण के अनुसार १+२लिया है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद्रणीय बृजेश जी, प्रदीप जी, कुंती जी हौसला बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार...
बृजेश जी, मैंने तो सीखने की शुरुआत ही हिन्दी से की है, इससे कोई प्रेरणा ले तो यह मेरी मेहनत की सफलता और मेरा सौभाग्य होगा। मैं तो हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ही संघर्ष रत हूँ। हमें सभी भाषाओं का सम्मान करते हुए हिन्दी को शीर्ष स्थान पर रखना है।
बहुत सुन्दर रमानी जी, जो खेतों में हमारे लिये अन्न उगाते हैं सारे फ़ाके तो उन्हीं के हक में आता है ....क्योंकि ये धरती के संतान होते हैं ...जब तक ये भूखे रहेंगे हमारा पेट भरता रहेगा ..../ सादर / कुंती .
आदरणीया कल्पना जी आपने जिस तरह एक मजदूर के श्रम को नकारती व्यवस्था पर चोट करने की कोशिश उसके लिए साधुवाद! बहुत ही सुन्दर गज़ल हिन्दी भाषा में! इसके लिए विशेष बधाई। हिन्दी गज़ल का पथ प्रशस्त करिए जिससे हम आपका अनुसरण कर सकें।
सादर!
क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,
भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।
bahut khoob chitrn, saadr badhai,
adarniy ramani ji
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