ग़ज़ल -
कुछ होनी कुछ अनहोनी का मेला ही तो है ,
ये जीवन क्या माटी का एक ढेला ही तो है ।
साँसों की झीनी चादर पर रिश्तों के गोटे ,
भीड़ में भी होकर हर शख्स अकेला ही तो है ।
इस घर से उस घर तक जाने में रोना हँसना ,
सब कुछ गुड्डे गुड़ियों का एक खेला ही तो है ।
सुख दुःख का संगम तट ये तन और सारा जीवन ,
आशाओं उम्मीदों का एक रेला ही तो है ।
सूली ऊपर सेज पिया की छूने को तत्पर ,
हर कबीर अपने उस पी का चेला ही तो है ।
बहर काफिया और रदीफ़ में उलझा उलझा सा ,
कहते जिसको शायर वो अलबेला ही तो है ।
मंडी से आढ़त तक सबकी पर्ची कटी हुई ,
देखो तो ये दुनिया भी एक ठेला ही तो है ।
@ अरुण पाण्डेय "अभिनव"
[20052013 ]
Comment
सुंदर ग़ज़ल हेतु बहुत-बहुत बधाई///
बहुत सुंदर ग़ज़ल कही बन्धु बहुत बधाई
सूली ऊपर सेज पिया की छूने को तत्पर ,
हर कबीर अपने उस पी का चेला ही तो है ।
बहुत ही लाज़वाब अभिनव साहब हार्दिक बधाई
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ. |
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